शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

पेट के बाद शिक्षा !

इतिहास इस बात का साक्षी है कि मानव विकास की कहानी ज्ञान की लेखनी से ही लिखी गई है। आज प्रगति के शिखर को स्पर्श करने वाला मानव, शिक्षा के विविध आयामों के माध्यम से अपनी महत्वाकांक्षी परिकल्पनाओं को साकार करने में सक्षम है। तथापि यह भी एक कटु सत्य है कि बच्चों की पारिवारिक परिस्थितियों उनकी शिक्षा में बाधा भी उत्पन्न कर करती है।
परिवार भी सामाजिक संरचना का हिस्सा है। फलतः समाज में होने वाले छोटे-बड़े परिवर्तनों से परिवार भी प्रभावित होते हैं। परिवार यदि सामाजिक ढाँचे का निर्माण करते हैं, तो दूसरी ओर समाज का दायित्व भी इन परिवारों के प्रति पूर्णरूपेण बनता है। वर्तमान समय में हमारा समाज स्पष्ट रूप से तीन वर्गों में विभाजित दिखाई देता है। प्रथम- धनी वर्ग, द्वितीय- मध्यम वर्ग, तृतीय- निर्धन वर्ग। कुछ ऐसा ही विभाजन पारिवारिक पृष्ठभूमि के आधार पर शिक्षा क्षेत्र में भी स्पष्ट देखा जा सकता है। अंग्रेजी स्कूलों तक उन्ही की पहुँच हो पाती है जो आर्थिक आधार पर खरे उतरते हैं। मोटी आमदनी उनके बच्चों की राह आसान कर देती है। वे अपने बच्चों के लिये तत्परता से कार्य करते हैं। उनकी सजगता उनके बच्चों के सुनहरे भविष्य का निर्माण करती है। इसमें कुछ अनुचित भी नही है।

मेहनत-मजदूरी या फिर दैनिक वेतन पर गुजर-बसर करने वाले अधिसंख्य निर्धन तबके के लिये तो अंग्रेजी स्कूल एक सपना और सरकारी स्कूल एक उलझन साबित होती हैं। ये अभिभावक भी जो बीज परिवार ने अतीत में बोया था, वर्तमान में उसी को काट रहे हैं। क्या करेंगे बच्चों को पढ़ा-लिखा कर ? अपना कामधंधा ही तो आगे चलाना है।……मध्यम वर्ग के परिवार बच्चों को शिक्षा देना चाहते हैं। किंतु यहाँ भी बेटा-बेटी का भेदभाव दिखाई देता है। बेटे को अच्छी शिक्षा देंगे तो बुढ़ापे की लाठी बनेगा। लड़की तो पराया धन है। उस पर धन खर्च करने से क्या लाभ ? ऊपर से ब्याह भी करना है। थोड़ा बहुत पढ़ ले वही बहुत है। इस पारिवारिक मानसिकता के चलते ही बालिकाओं की शिक्षा बाधित हो रही है।
भले ही शिक्षा का मार्ग पेट भर भोजन के मार्ग से ही क्यों न जाता हो, किंतु यह सत्य है कि मध्यान्ह भोजन व्यवस्था ने बच्चों को स्कूल तक पहुँचाया है। अशिक्षित माता-पिता बच्चों को पढ़ने विद्यालय भेजते तो हैं, किंतु बच्चों की प्रगति के प्रति उदासीन ही रहते हैं। शिक्षा के महत्व को अधिक न समझ पाने के कारण वे शिक्षा को बच्चों के भविष्य से जोड़ कर नहीं देख पाते हैं। विद्यालयों में बच्चों की आये दिन अनुपस्थिति इसी बात की ओर संकेत करती है। घरेलू कार्यों के लिए उन्हें घर में रोक लिया जाता है या फिर पूरी तरह से उनकी शिक्षा रोक दी जाती है। यही कारण है कि प्रति वर्ष विद्यालय छोड़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
कई परिवार ऐसे हैं जहाँ आर्थिक तंगी के चलते घमासान मचा रहता है। माता-पिता का अलगाव, उनमें किसी एक का जीवित न रहना, घरेलू कलह आदि अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करता बचपन वेदना के उस के उस अंधे कूप में जा गिरता है, जहाँ से निकलने की छटपटाहट तो सुनी जा सकती है किंतु समाधान शून्य में कहीं खो जाता है। कुहनी से फटी बनियान, बेतरतीब बाल, सूनी आँखें, रूखे चेहरे भविष्य के प्रति शून्य भाव किसी के भी मन को विचलित कर देगा। मन में प्रश्न उठने लगते हैं, क्या यही हैं हमारे देश का भविष्य ?
मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित निर्धन परिवार में आँखें खोलने वाले ये बच्चे करें भी तो क्या ? सामाजिक न्याय-अन्याय की भाषा इन्हें नहीं आती। इन्हें तो रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें सुनाने का मन है, लेकिन बाल सुलभ इन बातों को सुनने का समय किसके पास है ? वास्तविक धरातल का कठोर यथार्थ उन्हें किसी बात की अनुमति नहीं देता। उनका निरर्थक पड़ा बस्ता दूसरे दिन की प्रातः तक उसी प्रकार पड़ा रहता है। जीवन की समस्याओं में उलझे उनके अभिभावकों को भी उनका यह बस्ता बोझ ही लगने लगता है।

मदिरापान कर जब उनका पिता उन्हें पीटता है, गालियाँ देता है, उनका बस्ता फेंक देता है या उन्हें घर से बाहर कर देता है तब वे क्या करें ? कैसे कक्षा में दिया गया कार्य करें ? स्कूल जा पाएँगे या नहीं ? यह मानसिक एवं शारीरिक चोट किस अनहोनी की ओर संकेत कर रही है ?
अपवादस्वरूप कई अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे शिखर तक पहुँचें। किंतु उनके सपने तब चूर-चूर हो जाते हैं, जब हजारों-लाखों की बात होती है। थक हार कर इन मेधावी निर्धन बच्चों की आशा निराशा में परिवर्तित हो जाती है। सरकारी प्रयास कितने सार्थक एवं न्यायपूर्ण क्यों न हों, पारिवारिक परिस्थितियाँ इन पर भारी पड़ती रही हैं। शिक्षा को गंभीरता से न लेना, शिक्षा के महत्व को न समझ पाना, दिन भर की परेशानी से बचने के लिए बच्चों को स्कूल भेजना, छात्रवृत्ति हेतु उत्साह दिखाना, उस राशि का प्रयोग बच्चों के लिए नहीं घरेलू कार्यों के लिए करना आदि कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर ढूँढना शेष है।
पारिवारिक परिस्थितियाँ धनी वर्ग के बच्चों के लिए भी कभी-कभी बाधा बनकर खड़ी हो जाती हैं। छोटे-छोटे बच्चों को संपत्ति की चमक चकाचौंध कर जाती है। भले-बुरे का ज्ञान मिट जाता है और वे शिक्षा से विमुख होकर कुमार्गी बन जाते हैं। अभिभावकों को तब समझ आती है जब उनके बच्चों के भविष्य का मार्ग पूरी तरह बंद हो चुका होता है। पाश्चात्य सभ्यता का विपरीत असर कई परिवारों में देखने को मिलता है। बच्चों की पढ़ाई के समय परिवार के सदस्य दूरदर्शन पर अपने मनपसन्द कार्यक्रम देखने लगते हैं। घर का वातावरण सिनेमा हॉल में बदल जाता है। बच्चों का भविष्य, उनकी प्रगति सबकुछ शोरगुल में डूब जाता है।
ग्रामीण परिवारों में शिक्षा वहाँ की मान्यताओं, भौगोलिक परिस्थितियों तथा कृषि कार्यों की आवश्यकताओं के आधार पर निर्धारित होती हैं। घर में कार्य की अधिकता के आधार पर बच्चों का स्कूल न जाना स्वतः ही तय हो जाया करता है। वर्तमान समय में ग्रामीण क्षेत्रों के परिवारों में शिक्षा के प्रति उत्साह देखा जा सकता है, तथापि शिक्षा सहमति-असहमति के मध्य देखी जा सकती है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि जैसी पारिवारिक परिस्थितियाँ होती हैं उसी के अनुरूप शिक्षा का स्वरूप भी परिवर्तित होता रहता है। जटिल पारिवारिक परिस्थितियाँ श्क्षिा के मार्ग को बाधित करती हैं और अनुकूल पारिवारिक परिस्थितियाँ शिक्षा के मार्ग को सुगम बना देती हैं। किसी भी परिस्थिति में निर्धन वर्ग को बहुत कुछ सहना पड़ता है।

2 टिप्‍पणियां:

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