बुधवार, 25 अगस्त 2010

राष्ट्रमंडल खेल बनाम भ्रष्टाचार

आखिर जिस बात का डर था वही हुआ। इससे पहले कि राष्ट्रमंडल खेल शुरू होते भ्रष्टाचार का हाहाकार मच गया। अब चाहे सरकार हो, ओलंपिक कमेटी या फिर दूसरे सभी लोग, खेलों का आयोजन उनके लिए दूसरे नंबर की प्राथमिकता हो गई। आरोप-प्रत्यारोप, जांच, बर्खास्तगी, निलंबन, संसद में हंगामा और मीडिया में धुआंधार कवरेज पहली प्राथमिकता बन गई है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि खेलों के आयोजन में कुछ न कुछ गड़बडि़यां हो रही हैं, कुछ न कुछ गोलमाल, घालमेल चल रहा है। संसद में सुबह से शाम तक राष्ट्रमंडल खेलों में गड़बडि़यों का हल्ला मच रहा है। और तो और खेल मंत्री को यहां तक कहना पड़ा कि भारत एशियाई खेल आयोजित करने का बहुत इच्छुक नहीं है। मतलब यह है कि दूध का जला अब छाछ भी पीने को तैयार नहीं है। टीएस दरबारी, संजय महेंद्रू, अनिल खन्ना और एम जयचंद्रन को खेलों के आयोजन से हटा दिया गया है। जितनी सरकारी एजेंसियां हैं, सबकी निगाहें खेलों के आयोजन में हो रही गड़बडि़यों की ओर लगी हुई हैं। आयोजन समिति के दफ्तर में तनाव का माहौल है और सभी सहमे हुए हैं। कोई किसी किस्म का फैसला लेने से डर रहा है, क्योंकि सबको भय है कि कल सीबीआई तथा दूसरी जांच एजेंसियां उनकी गर्दन पकड़ सकती हैं। इस माहौल में खीझ कर भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष और इन खेलों के कर्ताधर्ता सुरेश कलमाड़ी ने भी न्यायिक जांच कराने का प्रस्ताव दे दिया है। आयोजन समिति के दफ्तर में खेलों के शौकीन लोग बिना किसी लालच के मुफ्त में काम कर रहे थे। इज्जत बचाने के डर से अब वे भी वहां से भाग रहे हैं। मणिशंकर अय्यर और शरद यादव जैसे लोगों के चेहरे पर मुस्कान देखी जा सकती है और मुस्कान हो भी क्यों नहीं, उन्होंने जो कहा वह सच साबित हो रहा है।
इसमें कोई शक नहीं है कि कहीं कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर चल रहा है, अन्यथा इन अफसरों को हटाने की जरूरत नहीं थी। अखबारों में आरोप छपने के बाद कुछ पदाधिकारियों द्वारा इस्तीफा देने की जरूरत नहीं पड़ती। इस बात में भी अब कोई संदेह नहीं बचा है कि पूरे राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन और उसके लिए हुए निर्माण में आरोपों की जांच भी सरकार कराएगी। जांच का मतलब है कि साल भर जमकर मीडियाबाजी होगी, तमाम लोग पकड़े जाएंगे। उनकी बदनामी होगी। जब इतने आरोप लग चुके हैं तो जांच होनी भी चाहिए। सरकार के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह इसकी जांच कराए, क्योंकि तकरीबन 2500 करोड़ रुपये केंद्र सरकार ने इन खेलों के आयोजन पर खर्च किए हैं। ओलंपिक समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी का कहना है कि उन्होंने कोई गड़बड़ी नहीं की है। सब कुछ पारदर्शी ढंग से हुआ है और हर निर्णय में भारत सरकार के आला आईएएस अफसर शामिल थे। वित्त समिति हो या टेंडर समिति-सभी में ये अफसर थे। मीडिया में आरोपों की झड़ी और उसके बाद कलमाड़ी का प्रत्युत्तर इस पूरे आयोजन को और रहस्यमय बना देता है। इस हालत में इनकी जांच बहुत जरूरी है ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके।
इस सबके बावजूद आज की तारीख में हमारी पहली प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? भारत की इज्जत या कुछ व्यक्तियों की धरपकड़? मेरा सिर्फ इतना कहना है कि खेलों के आयोजन में 60 दिन भी नहीं बचे हैं। यह एक विश्व आयोजन है, पूरी दुनिया की निगाहें हमारी तरफ हैं। वैसे भी विदेशी लोगों ने खेल आयोजन की आलोचना शुरू कर दी है। अनेक नामी खिलाड़ी खेलों में भाग लेना नहीं चाहते। इस घमासान को बहाना बनाकर भारत न आने को उन्हें मौका मिल जाएगा। यह पहली बार हो रहा है कि ब्रिटेन की महारानी कॉमनवेल्थ खेलों का उद्घाटन करने नहीं आ रही हैं। फिर भी वह अपने बेटे राजकुमार चा‌र्ल्स को भेज रही हैं। मुझे डर है कि कहीं प्रिंस चा‌र्ल्स भी बहाना बनाकर अपनी यात्रा रद न कर दें, जो हमारे मुंह पर एक बड़ा तमाचा होगा। आज हम सबकी यह प्राथमिकता होनी चाहिए कि पहले हम इन खेलों को सफल बनाएं। इनकी सफलता से पूरे विश्व को चमत्कृत कर दें कि भारत सबसे अच्छा आयोजन कर सकता है। भारत का झंडा गाड़ दें। जब खेल समाप्त हो जाएं और सारे विदेशी मेहमान चले जाएं तब हम वह हल्ला बोलें जो हम आज बोल रहे हैं। जिसने भी गलती की हो उसकी जांच की जाए। कहीं किसी किस्म की कोताही न बरती जाए।
जो हल्ला बोल आज शुरू हो गया है वह सवा दो महीने बाद हो तो बेहतर है। तब तक कोई गड़बड़ी न हो, इसके लिए सरकार जिम्मेदार लोगों की कमेटी बना दे जो सारे फैसले ले। बेहतर होगा कि कुछ केंद्रीय मंत्रियों का एक समूह बना दिया जाए, जो महत्वपूर्ण फैसले ले और बाद में वे फैसले आयोजन समिति द्वारा लागू किए जाएं। वैसे भी चूंकि इन खेलों पर ज्यादातर पैसा भारत सरकार का लग रहा है इसलिए जरूरी हो जाता है कि भारत सरकार के हाथ में इसकी कमान दी जाए। खेल मंत्रालय और खेल प्राधिकरण की इतनी गलती थी कि जो पैसा उनको खर्च करना था उन्होंने आयोजन समिति के हाथ में दे दिया। शहरी विकास मंत्रालय ने ऐसे ठेकेदारों पर अंकुश नहीं रखा जो आदतन चार रुपये की चीज 14 में बनाते हैं, मगर ये सारी चीजें खेलों के बाद दुरुस्त की जा सकती हैं। अभी यदि ठेकेदारों, इंजीनियरों ने काम बंद कर दिया तो सब कुछ आधा-अधूरा रह जाएगा इसलिए पहले खेल पूरे हों और बाद में ये सब काम हों। वैसे हम इस तर्क से बिल्कुल सहमत नहीं हैं कि इस तरह के खेलों के आयोजन नहीं होने चाहिए और यह पैसे की बर्बादी है। फिर तो आप कुछ नहीं कर सकते हैं।
विकास के काम भी कोई क्यों करे, क्योंकि सबमें पैसा लगता है। जब इस तरह के आयोजन होते हैं तो हजारों लोगों को रोजगार मिलता है, नए निर्माण होते हैं और उद्योग व्यापार को भी बढ़ावा मिलता है। हजारों विदेशियों के आने से पर्यटन को भी बढ़ावा मिलता है। जिस शहर में आयोजन होता है उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान मिलता है। जो भी विदेशी यहां आएंगे सब यहां पैसा खर्च करेंगे। कोई यहां से लाखों करोड़ डॉलर नहीं ले जा रहा है। सब इसी देश में व्यय होगा। इसके अलावा जो निर्माण कार्य होगा वह हमेशा के लिए मुकम्मल रहेगा और उसके तमाम फायदे उठाए जा सकते हैं। भारत यह सोच भी नहीं सकता है कि चीन ने ओलंपिक पर कितना पैसा खर्च किया। यदि चीन की कम्युनिस्ट सरकार यह सोच कर चलती कि खेलों का आयोजन पैसों की बर्बादी है तो वहां ओलंपिक का इतना भव्य आयोजन नहीं हो पाता। आज हम तो ओलंपिक की सोच भी नहीं सकते हैं। जब 70 देशों के राष्ट्रमंडल खेलों के लिए इतनी हाय-तौबा मची है तो ओलंपिक खेल लाने की हिम्मत कौन जुटा पाएगा!

2 टिप्‍पणियां:

vikram7 ने कहा…

svaagat hae blaagjagat me

संगीता पुरी ने कहा…

इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!