बुधवार, 25 अगस्त 2010

स्त्री विमर्श के बहाने- यथार्थ

आज वर्तमान समय में चाहे भारतीय समाज कितनी ही तीव्र गति से उन्नति कर रहा हो, परन्तु आज भी कहीं न कहीं स्त्री की इच्छाओं को कुचल दिया जाता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि औसत भारतीय स्त्री की स्थिति न केवल परिवार में, बल्कि परिवार के बाहर भी अतिशय दयनीय है। उसके बस कर्त्तव्य ही कर्त्तव्य हैं, अधिकार कोई नहीं है। परिवार की आय और संपत्ति में स्त्री का कोई हिस्सा नहीं है। यहां तक कि मकान में भी वह मेहमान की तरह रहती है और पति के नाराज होने पर उसे कभी भी सड़क पर खड़ा किया जा सकता है। कार्य स्थल पर उसका तरह-तरह से शोषण और अपमान होता है। स्त्री की यौनिकता का तो जैसे कोई अर्थ ही नहीं है। यौन शोषण और बलात्कार की बढ़ती हुई संख्या ने हर स्त्री में असुरक्षा की भावना भर दी है।
यह संतोष की बात है कि हिन्दी के स्त्री लेखन में और खासकर स्त्री विमर्श में स्त्री की इस ट्रेजेडी के प्रति गहरा सरोकार दिखता है। प्रश्न यह है कि यह सरोकार स्त्री विमर्श तक सीमित रहेगा या सामाजिक सक्रियता के स्तर पर भी इसकी अभिव्यक्ति होगी?

यह सवाल इसलिए अत्यंत प्रासंगिक है कि हिंदुस्तान की स्त्रियों में शिक्षा तथा जागरूकता की कमी है। इसलिए उनके उत्थान के लिए सिर्फ पढ़ना-लिखना काफी नहीं है। पढ़ने-लिखने से बौद्धिक स्त्रियों का सम्मान भले ही बढ़ जाता हो और उनकी आमदनी में इजाफा हो जाता हो, पर इससे आम भारतीय स्त्री का कोई खास भला नहीं होता। उनकी जंजीरों के कसाव में कोई कमी नहीं आती। इसलिए हिन्दी में पहली बार दिखाई दे रहे स्त्री शक्ति के उभार का दायरा बढ़े और वह करोड़ों दीन-दुखी, शोषित-प्रताड़ित-अपमानित स्त्रियों की मुक्ति का धारदार औजार बने तो कितना अच्छा हो।
आज हमें एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था गढ़ने की आवश्यकता है जिसमें स्त्री परस्परता व पूरकता से जी पाये व समूची मानव जाति एक दूसरे की सहयोगी हो। जब तक परस्परता व पूरकता को नहीं अपनाया जायेगा, तब तक किसी भी मानवीय सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था का निर्माण नहीं हो पाएगा और न ही मानवीय स्थितियां समाज में कायम होंगी।वैदिक काल में पत्नी और माता के रूप में स्त्री को पर्याप्त अधिकार प्राप्त थे, किन्तु पुत्री के रूप में उसकी स्वीकार्यता पुत्र के समान नहीं थी। कई वेदमंत्रें में ऋषियों ने पुत्रजन्म की कामना की है। पुत्री की कामना करते मंत्र कहीं नहीं दिखते। कन्या के रूप में पुत्री की स्वीकार्यता सामान्यतया उस समय भी नहीं थी। यह स्थिति आज के वर्तमान युग तक चली आ रही है। कन्या भू्रण हत्या को लेकर वर्तमान में की गई चिंता के बीज शायद वैदिक काल से ही बोए गए जो कई सारे सवाल खड़ा करते हैं।
स्त्री के साथ भेद दृष्टि और लैंगिक असमानता के सैकड़ों संदर्भ समस्त धर्म, साहित्य और परम्परा में बिखरे पड़े हैं। कोई भी धर्म इससे अछूता नहीं है। वर्तमान मानव धरती पर कहीं परम्परावादी है, कहीं प्रगतिशील है और कहीं पर आधुनिकता, उत्तर आधुनिकता का उस पर प्रभाव है तो कहीं विज्ञान व साम्यवाद के प्रभाव में उसका कार्य-व्यवहार है। लेकिन सभी जगह स्त्री-पुरुष समानता और स्त्री को मानव के रूप में प्रतिस्थापित करने के प्रयास आकांक्षाओं के रूप में ही दिखते हैं। वास्तविकता में इनका दर्शन दुर्लभ है। सम्प्रदाय मानसिकता में जीने वाली परम्पराएं मानव के रूप में स्त्री को प्रतिष्ठित नहीं कर पायी हैं। विडंबना यह है कि स्वयं पुरुष भी मानव के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हो पाया है।
यदि तुलनात्मक रूप से देखा जाये तो पुरुष की भी स्थिति सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र में अच्छी नहीं है। कुछ पुरुषों द्वारा अन्य पुरुषों का शोषण जारी है और स्थितियां तेजी से बिगड़ रही हैं। स्वयं पुरुष भी चिन्तित है। पुरुष के पास भी उस मानवीय समझ का अभाव है जिसके प्रकाश में वह मानव के रूप में अभिव्यक्त हो पाता। उसकी जगह वह धन बल, रूपबल, पदबल, बाहुबल आदि के रूप में व्यक्त हो रहा है, इसी से सभी विषमताएं तैयार हुई हैं।
प्रश्न यह भी है कि पदार्थवादी चिंतन जो स्वयं अस्थिरता व अनिश्चितता के सिध्दान्त पर खड़ा है, वह कैसे न्याय व व्यवस्था जैसी स्थिरता की पहचान कर पायेगा। आज पूरे विश्व में पदार्थवादी और उपभोक्तावादी चिंतन से ओत-प्रोत शिक्षा का प्रभाव है जिससे मनुष्य नित नये द्वंद्व में फंसता जा रहा है। सभी मानव समुदाय आपस में असुरक्षित हैं। ऐसी अव्यवस्था में स्त्री को न्याय कहां मिलेगा? यह स्वयं विचारणीय प्रश्न है।
स्त्री-पुरुष शब्द अपने आप में संकीर्णता लिए हुए है। ‘स्त्री’ शब्द स्त्री की शरीरगत पहचान को ही प्रस्तुत कर पाता है, जबकि स्त्री, मानव के रूप में शरीर की सीमा से अधिक प्रकाशित है। यदि स्त्री को हम शरीरगत आधार पर पहचानने जाते हैं तो स्त्री-पुरुष के मध्य समानता के ध्रुव बिन्दुओं की पहचान कठिन हो जाती है।
दूसरी ओर ‘मानव’ शब्द में नर-नारी या स्त्री-पुरुष दोनों का सम्बोधन समाया हुआ है। यह आज की जरूरत है कि ‘स्त्री’ को ‘मानव’ के संदर्भ में देखा जाए। ‘मानव’ शब्द की महिमा अथवा प्रयोजन लिंग विधा से परे है अथवा भिन्न है। हम पाते हैं कि रूप, गुण, स्वभाव धर्म के संयुक्त रूप में ‘मानव’ शब्द अपना अर्थ प्राप्त करता है।
वर्तमान समय में जितनी भी राजनीतिक व आर्थिक न्यायिक व्यवस्थाएं प्रचलित हैं, वे परिवार संस्था को नहीं पहचानती हैं। ये सभी राजनीतिक सरंचनाएं व्यक्तिवादी सोच पर आधारित हैं। अत: परिवार संस्था धीरे-धीरे कमजोर हुई है। लेकिन यह सोचने की जरूरत है कि यदि परिवार ही नहीं रहेगा तो मनुष्य जियेगा कहां? परिवार ही वह जगह है जहां मनुष्य मानसिक, शारीरिक, आर्थिक सुरक्षा पाता है, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष। अत: हमें स्त्री सशक्तिकरण को परिवार के संदर्भ में विशेषकर देखने की महती आवश्यकता है। विगत में नारीवादी सोच ने भी परिवार संस्था को ठेस पहुंचाई है। कहने का आशय यह बिल्कुल नहीं है कि परिवारों में नारी की स्थिति बहुत अच्छी है। निश्चित रूप से यहां अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
धर्म और राजनीति के मध्ययुगीन विचार आज धीरे-धीरे पुन: हावी होते जा रहे हैं। धर्म के नाम पर स्त्री के जीवन को पुन: घर में ही समेट देने की कवायद तो सभी इस्लामिक मुल्कों में चल रही है, लेकिन सभ्य कहे जाने वाले मुल्कों में भी बाजारवादी सोच के चलते स्त्री की सुंदर देह का भरपूर उपयोग किया जा रहा है।

दो तरह की अतियों से स्त्री का जीवन नर्क बना हुआ है पहली अति वह जिसे हम पश्चिम में देख रहे हैं। वहाँ की स्त्री ने स्वतंत्रता के नाम पर जो नग्नता दिखाई है, उसे लक्ष्मण रेखा को पार कर जाना ही कहा जाएगा। इस पश्चिमी नाच से घबराकर इस्लामिक मुल्कों में दूसरी तरह की अति शुरू हो चुकी है।
सवाल यह उठता है कि स्त्रियों को स्त्रियों की तरह होना चाहिए या स्त्रतंत्रता के नाम पर पुरुषों की तरह? आज हम देखते हैं कि पश्चिम में स्त्रियाँ स्वतंत्रता के चक्कर में प्रत्येक वह कार्य करती है जो पुरुष करता है। जैसे सिगरेट और शराब पीना, जिम ज्वाइन करना, तंग जिंस और शर्ट पहनना, देर तक पब में डांस करना और यहाँ तक ‍कि पुरुषों की हर वह स्टाइल अपनाना जो सिर्फ पुरुष के लिए ही है। क्या स्वतंत्रता का यही अर्थ है? पुरुष को पुरुष और स्त्री को स्त्री होने में लाखों वर्ष लगे हैं, लेकिन वर्तमान युग दोनों को दोनों जैसा नहीं रहने देगा। होमोसेक्सुअल लोगों की तादाद बढ़ने के कई और भी कारण हो सकते हैं। दरअसल यह पढ़े और समझे बगैर बौद्धिक, सम्पन्न और आधुनिक होने की जो होड़ चल पड़ी है इससे प्रत्येक व्यक्ति का चरित्र पाखंडी होता जा रहा है। हम टीवी चैनल और फिल्मों की संस्कृति में देखते हैं कि ये कैसे अजीब किस्म के चेहरे वाले लोग है। जरा भी सहजता नहीं। कहना होगा कि ये सभ्य किस्म के जाहिल लोग हैं। रियलिटी शो की रियलिटी से सभी परिचित है।

मीडिया, फिल्म और बाजार की स्वतंत्रता के दुरुपयोग के चलते इस तरह के फूहड़ प्रदर्शन के कारण ही धर्म और राजनीति के ठेकेदारों के मन में नैतिकता और धार्मिक ‍मूल्यों की रक्षा की चिंता बढ़ने लगी है। महिलाओं ने अभी अपना धर्म विकसित नहीं किया है और शायद भविष्य में भी नहीं कर पाएँगी। इसके लिए साहस, संकल्प और एकजुटता की आवश्यकता होती है। पुरुष जैसा होने की होड़ के चलते तो वह सभी क्षेत्र में किसी भी तरीके से बढ़- चढ़कर आगे आ जाएगी और आ भी रही हैं, लेकिन वह जिस तरह से अपनी स्वतंत्रता का प्रदर्शन कर रही है उससे खुद उसके सामने धर्म, समाज और राष्ट्र की आचार संहिताओं की चुनौतियाँ बढ़ती जाएँगी। जैसा आज हम देख रहे ‍हैं अफगानिस्तान और पाकिस्तान में क्या हो रहा है। पश्चिम की स्त्रियों ने स्वतंत्रता का जो निर्वस्त्र नाच दिखाया है उसी से घबराकर इस्लामिक मुल्कों में स्त्रियों पर ढेर सारी पाबंदियाँ लगाई जा रही है। यह दो तरह की अतिवादिता है।
महिला शक्ति को सलाम, लेकिन हमें सोचना होगा उन महिलाओं के बारे में जो बुरी स्थिति में हैं। असमानताओं के बारे में सोचा जाए जो आज भी समाज में कायम है। हम उसके लिए क्या कर सकते हैं यह सोचा जाना अब भी शेष है।


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