बुधवार, 22 अप्रैल 2015

वर्तमान समय में ई बुक्स की उपयोगिता का अध्ययन

प्रस्तावना
कहते हैं कि किताबें ही आदमी की सच्ची दोस्त होती हैं, जमाना बदल रहा है ..लोगों के पास समय की कमी होती जा रही है | किताबों को पढने का भी तरीका परिवर्तित हुआ है | अब जमाना डिजिटल है तो किताबें भी डिजिटल हुईं  |
ई-पुस्तक (इलैक्ट्रॉनिक पुस्तक) का अर्थ है डिजिटल रुप में पुस्तक । ई-पुस्तकें कागज की बजाय डिजिटल संचिका के रुप में होती हैं जिन्हें कम्प्यूटर, मोबाइल एवं अन्य डिजिटल यंत्रों पर पढ़ा जा सकता है । इन्हें इण्टरनेट पर भी छापा, बांटा या पढ़ा जा सकता है । ये पुस्तकें कई फाइल फॉर्मेट में होती हैं जिनमें पीडीऍफ (पोर्टेबल डॉक्यूमेण्ट फॉर्मेट), ऍक्सपीऍस आदि शामिल हैं, इनमें पीडीऍफ सर्वाधिक प्रचलित फॉर्मेट है । ई-पुस्तको को पढ़ने के लिए कम्प्यूटर (अथवा मोबाइल) पर एक सॉफ्टवेयर की आवश्यकता होती है जिसे ई-पुस्तक पाठक (eBook Reader) कहते हैं । पीडीऍफ ई-पुस्तकों के लिए ऍडॉब रीडर तथाफॉक्सिट रीडर नामक दो प्रसिद्ध पाठक हैं । ई-बुक के सस्ता होने का कारण यह है कि इन पर पहली बार आने वाली लागत के बाद अमूमन कोई लागत नहीं आती । एक बार ई-बुक विकसित और प्रकाशित होने के बाद लेखक उसकी अनंत फाइलें बनाने के लिए स्वतंत्र है । इसलिए लेखक की लागत बहुत कम होती है और इसका लाभ पाठक तक पहुँचता है । भारत में भी ई-बुक्स का ट्रेंड तेजी से जोर पकड़ रहा है और अंग्रेजी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं में भी ई-बुक्स खूब दिखने लगी हैं । दिल्ली में सितंबर 2012 में हुए विश्व प्रसिद्ध दिल्ली पुस्तक मेले में ई-बुक को मुख्य थीम बनाकर भारतीय प्रकाशकों के संगठन ने भी ई-बुक्स में अपनी रुचि प्रकट की है । यह एक नए क्षेत्र में उभरते हुए अवसरों का भी संकेत है । मेज़न का किंडल (kindle) और सोनी का ई-बुक रीडर काफी लोकप्रिय हैं। हालाँकि ई-बुक पढ़ने के लिए खास तौर पर ई-बुक रीडर खरीदने की जरूरत नहीं है और आप अपने कंप्यूटर, लैपटॉप या टैबलेट पर भी इनका आनंद ले सकते हैं।
ई-पुस्तक बनाने के दो तरीके हैं।
·         कम्प्यूटर पर टाइप की गई सामग्री को विभिन्न सॉफ्टवेयरों के द्वारा ई-पुस्तक रुप में बदला जा सकता है।
·         छपी हुई सामग्री को स्कैनर के द्वारा डिजिटल रुप में परिवर्तित करके उसे ई-पुस्तक का रुप दिया जा सकता है।

उद्देश्य :
कहते हैं कि किताबें ही आदमी की सच्ची दोस्त होती हैं, जमाना बदल रहा है ..लोगों के पास समय की कमी होती जा रही है | किताबों को पढने का भी तरीका परिवर्तित हुआ है | अब जमाना डिजिटल है तो किताबें भी डिजिटल हुईं  | शोध के द्वारा यह जानने का प्रयास किया गया है कि पुस्तकों का डिजिटल रूप पाठकों और छात्रों के बीच किस तरह से स्थापित हो रहा है तथा इससे पाठकों को क्या लाभ मिल रहा है | ई पुस्तकों का पाठक वर्ग किस तरह का है | इसकी उपयोगिता क्या है ? किताबों के विकल्प के रूप में ई बुक्स के महत्व को समझाना है |
शोध प्राविधि :
इस शोध को पूर्ण करने के लिए  फोकस ग्रुप स्टडी विधि का उपयोग किया है | इसके लिए  सुविधानुसार निदर्शन पद्धति से माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि के स्नातकोत्तर एवं एमफिल कक्षा के ऐसे दस छात्र और दस छात्राओं का समूह बनाया जो ई बुक्स का प्रयोग कर रहे हैं | इस समूह के बीच इस मुददे को लेकर वाद विवाद परिचर्चा कराया गया | इस दौरान इनके हर मुददे को अंकित किया गया | साथ में कुछ सवाल भी किया गया ई बुक्स को लेकर | इसके अलावा दिल्ली विश्वविध्यालय के प्रोफ़ेसर डॉ हरीश  और जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविध्यालय दिलीप शक्य का साक्षात्कार किया गया | दोनों ही प्रोफ़ेसर ई बुक्स का प्रयोग करते हैं तथा ई बुक्स के जानकार है | इनका साक्षात्कार इस लिए लिया गया कि ई बुक्स के पढ़ने वालों की प्रवृति के बारे में जाना जा सके |
विश्लेषण :
परिचर्चा और साक्षात्कार के दौरान जो बातें निकल कर सामने आयी उसमें पता चला कि जो लोग किताबों से दूर चले गए थे वो अब ई बुक्स के माध्यम से किताबों को पढ़ने लगे हैं | तथा किताबों को सहेजने और उनकों संचय करने कि चिंता को दूर किया है ई बुक्स ने | जिससे हर तबका लाभान्वित हुआ है | किताबों को छात्र अब बोझ नहीं समझता है | इसके अलावा परिचर्चा में अन्य कई महत्वपूर्ण तथ्य निकल कर आये जो निम्नलिखित है :-
·       जो युवा वर्ग तकनिकी रूप से सक्षम है उसके लिए वरदान की तरह है | चाहे वह कोर्स बुक्स हो या अन्य तरह की जानकारी वाली पुस्तकें हो | किताबें अब एक क्लीक में मोबाईल या टैब पर साथ हो लेती है जिससे पाठक हर समय अपने आप को किताबों से जोड़े रखता हैं |
·       जो युवा वर्ग किताबों को तकियानूसी समझाता था जिसके लिए लाईब्रेरी में बैठ कर किताबों का अध्ययन करना बहुत मुश्किल था | ई बुक्स के आ जाने से उस वर्ग में से बहुत अच्छे पाठक और लेखक उभर कर आये है |
·       ई बुक ऐसी तकनीकी किताब है, जो लेखक, प्रकाशक और पाठक सभी के लिए फ़ायदे का सौदा है। हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के लेखक ई-प्रकाशक के माध्यम से अपनी ई-बुक्स प्रकाशित करवा सकते हैं। ई-प्रकाशक की शुरूआत विशेष तौर पर इन्हीं भाषाओं को ध्यान में रखते हुए हुई है क्योंकि इन्डिक यूनिकोड से संबंधित जटिलताओं की वजह से आज भी हिंदी में ई-बुक्स का प्रकाशन चुनौतीपूर्ण है। अलबत्ता, ई-प्रकाशक इन सभी चुनौतियों को तकनीकी रूप से सुलझाने और आकर्षक इंडिक ई-बुक्स के प्रकाशन में सक्षम है।
·       इस परिचर्चा में एक बड़ी बात सामने निकल कर ये आयी कि अभी भी ई बुक्स के पढ़ने वालों में एकाग्रता की कमी होती है तथा वो अपने विषय को बेहतर नहीं समझ पते हैं |
·       एक बात और सामने निकल कर आयी कि पाठकों को ई पुस्तकों को पढ़ने में ज्यादा मज़ा नहीं आता है | ई बुक्स के पाठक भी प्रिंट किताबों को ही बेहतर मानते हैं |
·       एण्ड्रॉय्ड तथा आईओएस आदि टैबलेट आ जाने से प्रयोग और सुगम हुआ है। अब एक अलग डिवाइस नहीं लेनी पड़ती, एक टैबलेट में ही सब कार्य हो जाते हैं चाहे वह ईमेल अथवा नेट सर्फ़िंग हो या चैट अथवा गेमिंग या फिर किताबें पढ़ना। एक डिजिटल कन्ज़्यूमर के लिए उत्तम कन्वर्जेन्स (convergence) |
·       पहले जहाँ बरिस्ता आदि में किताब पढ़ते कई लोग मिल जाते थे परन्तु ई-बुक पढ़ता कोई न दिखता था वहीं आजकल एकाध लोग दिख जाते हैं टैबलेट अथवा ई-बुक रीडर पर पढ़ते हुए | समय के साथ यह चलन और बढ़ेगा तथा और अधिक लोग ई-बुक्स को अपनाएँगे |
·       ई-बुक्स ने बाजार को बुरी तरह प्रभावित किया है। किताबों की बिक्री घट रही है। पुस्तक-स्टेशनरी का व्यापार भी डोलने लगा है। अब विद्यार्थी केवल प्रतियोगी परीक्षाओं के बुक्स खरीदते हैं। पढ़ने या लायब्रेरी के लिए साहित्य आदि की किताबें स्टालों में धुल खाती पड़ी रहती हैं।
·       आज कल हिन्दी-अंग्रेजी के अलावा अन्य भाषाओं में भी पुस्तकें-कविताएं सहित समूचा साहित्य इंटरनेट पर उपलब्ध है। यह उन लोगों के लिए वरदान है जो देख नहीं सकते । ई-बुक्स को सिर्फ पढ़ा नहीं बल्कि सुना भी जा सकता है। बुक्स अंतर्गत आप विश्व के नामचीन लेखकों-उपन्यासकारों, विचारकों, वैज्ञानिकों की रचनाएं सामग्री पढ़-सुन सकते हैं । 
·       आज समय बदल चुका है, लोग बाजार में किताबें ढूंढना-खरीदना नहीं चाहते हैं। बाजार के बुक स्टालों तक पहुंचने वाले पाठक वर्ग की संख्या गिनती की बची है। कहा जाता था कि 'ये तो किताब का कीड़ा है।' अब ये शब्दों से बना वाक्य इतिहास में कैद हो गया। एक दौर था जब लोग लेखक-उपन्यासकारों के नये अंक-एडीशन के लिए लंबा इंतजार किया करते थे । बड़े-छोटों सभी को पुस्तकों के लिए डाकघर के चक्कर लगाने पड़ते थे । पुस्तकों को पढ़ने का एक जुनून होता था। अब लोग इंटरनेट पर ही किताबों को पढ़ना ज्यादा पसंद करने लगे हैं । 

 निष्कर्ष
ज्ञान का खजाना कहे जाने वाली लाइब्रेरी की दुनिया आज कुछ जुदा अंदाज में हमारे सामने है। वक्त के साथ जो स्वरूप बदला वो है- ई-बुक्स की दुनिया। संजय बारू की द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर हो या फिर चेतन भगत की रिवोल्यूशन-2020, सुई मोंक किड की द इन्वेंशन ऑफ विंग की बात करें या फिर रेंसम रिग्स की हेल्लो सिटी की, ई-बुक्स की दुनिया में इन किताबों ने धूम मचाई। बुक्स स्टॉल पर पहुंचने से पहले ही इंटरनेट के जरिए यह किताबें पाठकों के बीच पहुंच गईं।
कुल मिलाकर कहा जाए तो लाइब्रेरी की दुनिया से बाहर निकलकर पाठक ई-बुक्स की दुनिया की लाइब्रेरी पंसद कर रहे हैं। सूई मोंक किड की द इन्वेंशन ऑफ विंग की बात करें तो कुछ महीने में ही एक लाख से अधिक लोगों ने इस किताब को इंटरनेट पर पढ़ा है। रेंसम रिग्स की हेल्लो सिटी को भी जमकर सराहना मिली। संजय बारू की द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर भारत के साथ पूरी दुनिया में पढ़ी गई।

संदर्भ ग्रंथ सूची
1.    Catherine C. Marshall, Reading and Writing the electronics books, Morgan and Claypool Publishers, 2009.
2.    टक्साली कांत रवि, इंटरनेट एवं ईमेल, टाटा मैक्ग्राहिल, 2010.
4.    अब आया ई-पुस्तकों का जमाना, न्यूज़ इन हिन्दी। 27 जनवरी, 2009.
5.    जोशी संदीप, ई-बुक रीडर, हिन्दुस्तान लाइव, 10 फ़रवरी 2010.
6.     -बुक क्या है, eprakashak.com/what_is_ebook.html




मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में मूल्यपरकता की आवश्यकता

हम धर्म और शिक्षा को चरित्र-निर्माण का सीधा मार्ग और सांसारिक सुख का सच्चा द्वार समझते हैं | हम देश-भक्ति को सर्वोत्तम शक्ति मानते हैं जो मनुष्य को उच्चकोटि की निःस्वार्थ सेवा करने की  ओर प्रवृत्त करती है।
-
मालवीय जी
सीखने का अर्थ कुछ आंकड़ों और तथ्यों को याद कर लेना भर नहीं होता है, बल्कि उससे कहीं अधिक व्यापक होता है | जब किसी का ज्ञान जीवन के गहरे अंतर्ज्ञान में बदल जाए, तभी हम कह सकते हैं कि उसे सही अर्थों में शिक्षा मिली है | मूल्य आधारित शिक्षा उतनी ही पुरानी है जितना कि मानव सभ्यता | भारत में शिक्षा वैदिक युग से लेकर आज तक शिक्षा प्रकाश का श्रोत है जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा सच्चा पथ-प्रदर्शन करती है |
आज संसार में अनेक देश है और प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक विशिष्टता है, यह विशिष्टता उस देश के लोगों द्वारा निर्मित्त है | क्योंकि कोई भी देश वहाँ बसे व्यक्तियों से बना है, जिस प्रकार एक-एक ईंट से मकान बनता है, और यह ईंट जितनी मजबूत होगी मकान उतना ही मजबूत होगा | उसी प्रकार जब तक एक-एक व्यक्ति शिक्षित नहीं होगे |वह देश मजबूत कैसे होगा? क्योंकि शिक्षा ही वह माध्यम है, जो एक व्यक्ति का सर्वांगीण विकास कर सकता है और जिस देश के नागरिक सुशिक्षित व प्रतिभा सम्पन्न होंगे वह राष्ट्र खुद व खुद उन्नति के पथ पर अग्रसर होता जाएगा | कोठारी शिक्षा आयोग ने इस सन्दर्भ में मत व्यक्त किया था कि भारत के भाग्य का निर्माण उसकी कक्षाओं में हो रहा है | विद्यालयों एवं महाविद्यालयों से निकलने वाले विद्यार्थियों की योग्यता और संख्या पर ही राष्ट्रीय निर्माण की उस महत्त्वपूर्ण कार्य की सफलता निर्भर करेगी जिनसे हमारे रहन-सहन का स्तर उच्च हो सकेगा | शिक्षा एक यात्रा है जो आदमी के मस्तिष्क को खोलने और उसे एक दायरे तक बांधे रखती है। उसे कहां रूकना हैं यह शिक्षा के माध्यम से ही निर्धारित करते है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर,महात्मा गांधीमहर्षि अरविंद आदि विद्वानों ने शिक्षा का वास्तविक अर्थ समझाते हुए बताया है कि -‘‘शिक्षा मानव को मुक्ति का रास्ता दिखलाती हैमानव को बौद्धिक और भावात्मक रूप से इतना मजबूत और दृष्टिवान बनाती है कि वह स्वंय आगे बढ़ने का रास्ता ढूंढने के योग्य हो जाता हैं” |
अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग जिसके अध्यक्ष जाक डेलर्स थे, ने अपनी रिपोर्ट ज्ञान का खजाना में स्पष्ट रूप से संकेत दिया था  कि जीवन भर चलने वाली शिक्षा मुख्य रूप से चार स्तंभों पर टिकी होती है- १. जानने के लिए ज्ञान २. करने के लिए ज्ञान ३. साथ रहने के लिए ज्ञान और ४. होने (अस्तित्व ) के लिए ज्ञान | शिक्षा का उद्देश्य निश्चित ही रोजगार सृजन है पर शिक्षा हमें बेहतर मनुष्य भी बनाए जिसमें मानवीय गुण हों तथा विश्व को बेहतर ढंग से रहने वाली जगह बनाए | यदि ह्रदय सच्चा है तो चरित्र होगा | चरित्र के साथ घर में शान्ति होगी और जहां घर अच्छे हैं, उससे राष्ट्र और विश्व प्रभावित होगा | इसलिए यह दायित्व विद्यालयों पर और भी बढ़ जाता है। इन विद्यालयों में अध्ययनरत विद्यार्थी हमारे देश की नींव हैं और इन विद्यालयों द्वारा विद्यार्थियों को प्रदत्त ज्ञान जितना उन्नत होगा हमारा देश उतनी ही तीव्रता से उन्नति के मार्ग पर प्रशस्त होगा | हमें अपने अतीत के आदर्श की प्राप्ति के लिये बौद्धिक क्षमता के साथ-साथ देश के भविष्य निर्माताओं की नैतिक, सांस्कृतिक और मानवीय मूल्य चेतना भी विकसित करने के लिए प्रयास करना होगा | व्यक्ति और समाज की उन्नति के लिए बौद्धिक विकास से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है चारित्रिक विकास | मात्र औद्योगिक प्रगति से ही कोई देश खुशहाल, समृद्ध और गौरवशाली राष्ट्र नहीं बन जाता | शिक्षा में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह व्यक्ति के जीवन आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं से सम्बंधित हो | प्राइस टैग के बिना भी शिक्षा विद्यार्थी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास कर समाज का सर्वागीण अभ्युत्थान कर सकती है | इसके लिए सरकार को गाँव-गाँव में आधुनिक तकनीक और मूल्यों से युक्त शिक्षण -प्रशिक्षण के लिए अधिकाधिक विद्यालय खोलने होंगे  जो भारतीयों को विचार स्वातंत्रय,तार्किक बुद्धि,स्वाभिमान,आत्मविश्वास तथा प्रासंगिक ज्ञान के साथ वैश्विक मंच पर खड़ा कर सके |आधुनिक समाज की दो मुख्य विशेषताएं हैं -प्रथम ,ज्ञान सूचना का प्रस्फुटन और दूसरा सामाजिक परिवर्तन की तीव्रगति | इन दोनों ही परिवर्तनों के साथ कदम मिलाकर चलने वाली शिक्षा की अनिवार्य शर्त है मूल्यपरक शिक्षा  | ज्ञान के विस्फोट के कारण आज शिक्षा सक्रिय रूप से स्वयं खोज कर प्राप्त होने की ओर बढ़ रही है | अतः आवश्यक है कि ऐसा मूल्यपरक वातावरण हो जो विद्यार्थियों में सही ज्ञान के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करे,उसकी सही मनोवृत्तियों का निर्माण करे ताकि वह स्वतंत्र हो तब भी जीवन के विषय में एक सही स्वस्थ सोच के साथ निर्णय ले सके.अपने स्व को समझे ,जीवन के अर्थ को समझे कि जीवन में ऊंचाइयों के साथ जीवन में गहराइयाँ भी ज़रूरी हैं | ज्ञान कितना है यह उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना कि उस ज्ञान का सही उपयोग कितना है और ज्ञान तो पूरे ब्रह्मांड में प्रकृति के कण-कण में बगैर किसी प्राइस टैग के बसा है.अगर ऐसा ना होता तो अब्दुल कलाम जी जैसे कई प्रतिभावान के नाम से भी हम अनभिज्ञ होते  | शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए आवश्यकता इस बात की है कि उपलब्ध संसाधनों का युक्तिपूर्ण उपयोग कर अपनी असीम सम्भावनाओं को पहचान कर उसे स्वहित,समाजहित,राष्ट्रहित और विश्वहित के लिए उपयोगी और उत्पादक बना दे | और साथ ही एक मूल्यपरक समाज की स्थापना में भी कारगर भूमिका निर्वाह करे |
प्राचीन काल के गुरूकुल एवं वर्तमान के शिक्षण संस्थाओं के परिवेश पर तुलनात्मक विचार करें एवं परखें तो काफी अन्तर दिखाई देगा जबकि वास्तविक वैचारिक धरातल पर दोनों का मूल अर्थ एवं उद्देश्य एक ही रहा है | गुरूकुल में गुरू एवं शिष्यों के बीच जो संबंध स्थापित रहा है, वर्तमान के शिक्षण व्यवस्था में वह टूट-टूट कर चकनाचूर होता दिखाई दे रहा है | आज के समय में शिक्षण संस्थान व्यावसायिक संस्थान बनकर रह गये हैं, जहां ज्ञान अर्थ के साथ जुड़कर अर्थहीन हो चला है | इस परिवेश ने शिक्षकों की परिभाषा एवं स्वरूप को ही बदल दिया है |
शिक्षा जगत के परिवेश आज हर तरह से उपेक्षित हो रहे हैं। जहां सर्वोपरि गुणवत्ता होनी चाहिए वहां बची-खुची योग्यता, टैलेंट का प्रयोग हो रहा है। जिसका कहीं प्रयोग नहीं हो सका वह शिक्षा जगत में आ रहा है, जहां शिक्षा का धड़ल्ले से व्यापार हो रहा है | आज शिक्षा देने के नाम पर गली-गली निजी, सरकारी शिक्षा केन्द्र खुले तो मिल जायेंगे पर इनमें से अधिकांश के पास कुशल योग्य स्टाफ नहीं होने से शिक्षा के साथ जो खुला मजाक हो रहा है, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता | भारी-भरकम रकम का खुला खेल शिक्षा केन्द्र स्थापना से लेकर संचालित होने तक यहां आसानी से देखा जा सकता है। जगह-जगह इस क्षेत्र में खुली दुकानदारियां इसका साक्षात उदाहरण दे रही हैं, जहां शिक्षा के वास्तविक मूल्य का कोई अर्थ नहीं | इस तरह की भूमिका में सरकार भी कहीं पीछे नहीं है जो बिना वास्तविक जांच किये ही शिक्षा का पट्टा गले में टांग कर वाहवाही लूट लेती है | एक सरकार मान्यता देती है तथा दूसरी सरकार उसे रद्द कर देती है | इस तरह के परिवेश में अर्थ कमाने की साफ-साफ प्रवृत्ति हावी देखी जा सकती है | जहां इस तरह के परिवेश के चलते आज यहां लाखों नौजवान प्रकाश पाने के मार्ग में अंधकारमय भविष्य के प्रति चिंतित हैं |
शिक्षा के वास्तविक स्वरूप को उजागर करने के लिये हमें उस अवधारणा को फिर से कायम करना होगा, जहां गुरू एवं शिष्य के बीच बनी आदर्श परम्परा जीवन को साकार रूप देने में सफल सिध्द हो सके | शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता को नकारा जाना इसके मूल उद्देश्य को समाप्त करना है | इसलिये किसी भी कीमत पर इस दिशा में समझौता नहीं किया जाना चाहिए | गुरू को सर्वोपरि पद पर रखकर ही ज्ञान अर्जित किया जा सकता है। तभी गुरु एवं शिष्य के बीच एक आदर्श परम्परा का निर्वाह हो सकेगा और यही परम्परा शिक्षा के मूल रूप को जीवन में उतारने में सहायक सिध्द होगी युवाओं में मूल्यों के जरिये श्रेष्ठ संस्कार और आदर्श शिक्षा की जरूरत है | आजकल के युवाओं में ज्ञान है परन्तु भौतिक ज्ञान के साथ आध्यात्मिक मूल्य एवं ज्ञान का अभाव होता जा रहा हैँ। इससे संस्कारविहिन मनुष्य का जीवन एक पशु के समान हो जाता है | मूल्य आधारित शिक्षा से युवाओं में श्रेष्ठ संस्कार बनेंगे |                             
व्यक्तियों के लिए सामाजिक मूल्य महत्वपूर्ण है | मूल्य व्यक्तित्व को प्रभावित करते है। कोई व्यक्ति समाज से कितनी आसानी से सामंजस्य कर पाएगायह इस बात पर निर्भर है कि उसके व्यक्तित्व में मूल्यों का प्रवेश कितना व्यवस्थित रहा है | समाज को जीवित रखने के लिए व्यक्तित्व के सर्वोच्च मूल्यों की पूर्णता का प्रयास किया जाना चाहिए। इसके अभाव में सभ्यताओं का शीघ्र अन्त होता है | मूल्यों के अभाव में जीवित सभ्यताओं का उत्थान और पतन बहुत उसके द्वारा व्यक्ति के विकास पर दिए जाने वाले बल पर निर्भर करता है |
स्वावलम्बन, आध्यात्म के साथ वर्तमान शिक्षा पध्दति को जोड़ा जाना शिक्षा के वास्तविक स्वरूप को उजागर कर सकता है | इस दिशा में अर्थ कमाने की दृष्टि से अंधाधुंध खुल रहे विद्यालय, महाविद्यालय एवं निजी विश्वविद्यालय पर रोक लगनी चाहिए, साथ ही इन स्थानों पर योग्य शिक्षकों ही भर्ती की जानी चाहिए। आज शिक्षा पाने लिए सरकारी विद्यालयों की अपेक्षा निजी विद्यालयों की ओर रुझान ज्यादा देखा जा रहा है। आखिर इस तरह का अविश्वास सरकारी विद्यालयों के प्रति क्यों पनप रहा है? इस विषय पर भी मंथन किया जाना चाहिए। जबकि सरकार सरकारी विद्यालयों को सर्वाधिक अनुदान देकर विद्यार्थियों को अधिक से अधिक सुविधा मुहैया करा रही हैं, जहां शिक्षक भर्ती में निजी विद्यालयों की अपेक्षा गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दिया जाता है | फिर भी आज जगह-जगह खुल रहे निजी विद्यालय सफल हो रहे हैं तथा सरकारी विद्यालय फेल | सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई होती ही नहीं, ऐसी अवधारण दिन पर दिन जनमानस में घर करती जा रही हैं, आखिर क्यों? इस तरह के मुद्दे भी शिक्षक दिवस पर विशेष रूप से विचारणीय है | शिक्षक अपने मूल रूप को अपने जीवन में उतारें जिससे शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के बीच आदर्श परम्परा कायम हो सके, इस तरह की मनोवृत्ति का संकल्प लेना चाहिए |

शिवेन्दु राय

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

शराब समाज के लिए घातक

दोस्तों मैं देख रहा हूँ कि सभी राज्यों में शराब के कारण समाज दूषित हो रहा है और घर के अन्दर व बाहर महिलाएं हिंसा की शिकार हो रही हैं। एक तरफ लगभग सभी राज्यों की सरकार ने पंचायतों में महिलाओं को पचास फीसद आरक्षण दे दिया तो दूसरी तरफ प्रत्येक पंचायत में शराब की दुकान खोलने का लाइसेंस दे दिया। इस कारण गांवों की स्थिति बदतर होती जा रही है। शराब के कारण बिहार में 37.2 फीसद शादीशुदा महिलाएं अपने पति 
द्वारा प्रताडि़त हो रही हैं।सरकार शराब को राजस्व उगाही का मुख्य स्त्रोत बना रही है। यह महिलाओं को जीते जी नरक में ढकेलने जैसा है। केन्द्र सरकार को अपनी शराब नीति पर पुर्नविचार करना चाहिए।और राज्यों को इस दिशा में निर्देश जारी करनी चाहिए | गांव- गांव शराब दुकान खोलकर लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ किया जा रहा है। स्कूल- कालेजों के पास शराब की दुकानें खोली जा रही हैं।..इस समस्या पर कारगर कदम उठाने की जरुरत है ...| मित्रों आप सब की क्या राय है ????

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

आम आवाज़ विकल्प सोशल मीडिया

स्विज़रलैंड मे यह व्यवस्था है की अगर आप कही कोई जुर्म होते या क़ानून टूटते हुए देख रहे है तो आप उस दृश्य को अपने मोबाइल के कैमरे मे कैद कर एक ख़ास वेबसाइट पर डाल सकते है जहाँ से सरकार उस पर कार्येवाही कर सकती है, इसके प्रभाव का आंकलन इस बात से किया जा सकता है की वहां कोई "च्वीन्ग्म" तक खा के नहीं थूकता! आज हिन्दुस्तान मे हर किसी के पास मोबाइल फ़ोन की सुविधा है, इन्टरनेट तक पहुँच भी आसान है तो हमारे देश मे इस विकल्प को क्यों नहीं अपनाया जा रहा! मै यह नहीं कह रहा की हम इस तरह के विकल्प से अन्भिग्ये है क्योंकि फेसबुक पर ट्रेफिक पुलिस द्वारा इस तरह की शुरुवात पहले ही की जा चुकी है और आज एक लाख से भी ज्यादा लोग इस से जुड़े हुए है और इसके द्वारा जो भी कर्येवाही अभी तक की गयी है उसमे ज्यादा श्र्ये जनता को ही जाता है, लोगो ने गलत नंबर प्लेट वाली गाडियों की तस्वीरे इस प्रष्ट पर डाली और गैर सरकारी वाहनों पर लगी लाल बतियों की तस्वीरे भी इस प्रष्ट पर डाली और नतीजा ऐसा था जिसकी कल्पना कम ही की जाती है की कई रसूख वाले लोगो को भी कानून के आगे झुकना ही पड़ा! पर इसको सिर्फ उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है क्योंकि किसी भी बड़े स्तर पर सोशल मीडिया की ताकत का इस्तमाल अभी भी शुरू नहीं हुआ है जो की भारत जैसे देश मे काफी जरूरी भी है!
हमारे देश की व्यवस्था काफी जटिल है और जटिलता से निपटने के लिए पारदर्शिता की जरुरत होती है और यह सोशल मीडिया पारदर्शिता की स्थापना कर सकता है! कुछ समय पहले तक जब लोकपाल के विषय मे बात चल रही थी तो कहा जा रहा था की लोकपाल को सारी ताकत नहीं दी जा सकती और इसी कारण यह मुद्दा ठन्डे बसते मे भी चला गया पर उस समय तक भी सोशल मीडिया का विकल्प किसी ने नहीं दिया! इसमें ताकत जनता के हाथो मे रहेगी जो की लोकतंत्र की बुनियाद है, फैसला भी न्याययालय द्वारा ही किया जायेगा जो की संविधान के अंतर्गत होगा और लाभ भी जनता को ही पहुंचेगा, यह लोकपाल का अच्छा विकल्प हो सकता था पर इस और ध्यान किसी ने नहीं दिया और वह भी तब जब भारत का एक बहुत बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया से जुडा हुआ है! जब सोशल मीडिया द्वारा भरष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है तो सोशल मीडिया द्वारा ही भरष्टाचार के खिलाफ लड़ा क्यों नहीं जा सकता? आखिर कितना मुश्किल होगा अगर आपसे कोई रिश्वत मांगे और आप उसका सबूत सोशल मीडिया द्वारा सम्बंधित विभाग तक पंहुचा दे! मेरे अनुसार भरष्टाचार के खिलाफ इस से अच्छा हथियार कोई नहीं हो सकता!
पर मै यह मानता हूँ की हमारी सरकार इस विकल्प को जान चुकी है इसीलिए कोई न कोई बहाना बना कर इन पर नियंत्रण कसने की साजिश कर रही है! सरकार का कहना है की ऐसा सामजिक और धार्मिक भावनाओ को ठेस पहुँचने से रोकने के लिए किया जा रहा है तो मै पूछता हूँ की अगर एक बार कोई गलत तस्वीर साइट्स से हटा भी दी जाती है तो कैसे माना जाये की उस तस्वीर को डालने वाला फिर कोई ऐसी तस्वीर नहीं डालेगा और कैसे इस बात का निर्धारण होगा की क्या सही है और क्या गलत? एक उदहारण दे कर समझाना चाहूँगा की लोकपाल आन्दोलन के दौरान सरकार की आलोचना करते कई चित्र फेसबुक पद डाले गए या ट्विट्टर पर भी कई सरकार विरोधी बातें कही गयी और यदि सरकार के पास इन सब पर नियंत्रण करने की ताकत होगी तो जायज सी बात है की सरकार इन सब को भी गलत मान कर हटा देगी! तो जरुरत है जल्द से जल्द सोशल मीडिया की असली ताकत को सही तरह से उपयोग करने की!
                                                                                                      साभार :-उधार 

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

दंत-हीन लोकपाल ! हाय रे कांग्रेस !




गहन माथापच्ची के बाद कैबिनेट से लोकपाल बिल को मंजूरी मिलने के बाद सरकार लोकपाल बिल को संसद में 22 दिसंबर को पेश करने जा रही है. इसे दंतहीन लोकपाल बताया जा रहा है जिसको लेकर अन्ना और सरकार के बीच तय है कि विरोधाभास और बढेगा और संसद की लड़ाई सड़क तक आनी तय है. कैबिनेट ने मंगलवार शाम को लोकपाल बिल पारित तो दिया, लेकिन अन्ना हजारे इसमें सीबीआई पर जो चाहते थे उसे स्वीकारा नही गया. सूत्रों का दावा है कि जिस लोकपाल को आना है उसके पास न तो अधिकार होंगे ना ताकत। इससे बिफरे अन्ना ने धमकी दी है कि वह मुंबई में 27 से 29 तक तीन दिन उपवास करेंगे और फिर 30 दिसंबर से जेल भरो आंदोलन शुरू होगा। अन्ना ने कहा यह सरकार अंधी और बहरी हो गई है।

दरअसल लोकपाल बिल अन्ना की ज्यादातर अहम मांगों से परे है. अन्ना हजारे कहते रह गए कि सीबीआई, ग्रुप-सी और न्‍यायपालिका को लोकपाल के अधीन लाया जाए. अन्ना चाहते थे कि सीबीआई लोकपाल के अधीन हो.लेकिन प्रस्तावित विधेयक में सीबीआई का अलग अस्तित्व बना रहेगा.ख़ास यह है कि अन्ना चाहते थे सीबीआई निदेशक की नियुक्ति लोकपाल की तरह हो मगर पेंच यह है कि है कि सीबीआई निदेशक की नियुक्ति प्रधानमंत्री, विपक्ष का नेता और चीफ जस्टिस मिलकर करेंगे. यह एक नई पहल है कि सिर्फ सरकार ही निदेशक की नियुक्ति नहीं करेगी. सीबीआई में एसपी और उससे ऊपर के अफसरों के चयन के लिए भी कमेटी होगी. अन्ना चाहते थे कि सीवीसी भी लोकपाल के अधीन काम करे, लेकिन सरकार ने उसे भी अलग रखा है. अन्ना हजारे की मांग थी कि ग्रुप-सी के कर्मचारी लोकपाल के दायरे में हों, लेकिन सरकार ने इसकी जिम्‍मेदारी सीवीसी को सौंप दी है.

सबसे अहम् अन्ना हजारे की मांग थी कि सरकारी बिल में व्यवस्था की गई है कि प्रधानमंत्री के खिलाफ तभी जांच हो सकेगी जब लोकपाल बेंच के तीन चौथाई सदस्य इस पर सहमत हों. प्रधानमंत्री की सुनवाई इन-कैमरा होगी यानी मीडिया और आम जनता वो सुनवाई नहीं देख सकेंगे. कुछ शर्तों के साथ पीएम जरूर लोकपाल बिल के अंदर आ गये हैं। सरकार के इस नये लोकपाल में केस लड़ने के लिए एक टीम होगी और जांच करने के लिए भी एक टीम होगी. लोकपाल में नौ सदस्य होंगे. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज इसके चेयरमैन होंगे. लेकिन लोकपाल को चुनने वाली कमेटी में प्रधानमंत्री, लोकसभा स्पीकर, लोकसभा में विपक्ष की नेता, चीफ जस्टिस और सरकार के ही चुने एक मशहूर वकील होंगे. अन्ना चाहते थे कि शिकायत करने वालों को तंग न किये जाने की सरकारी व्यवस्था हो लेकिन सरकार शिकायत करने वालों की रक्षा के लिए अलग व्हिसल ब्‍लोअर बिल ला रही है. इससे शिकायत करने वालों की पहचान छिपाई जा सकेगी.

अब अन्ना हजारे ने साफ़ तौर पर कहा कि भ्रष्टाचार खत्म करने को लेकर सरकार की नीयत साफ नहीं है. और ये भी कि उन्हें लोकपाल का नया मसौदा मंजूर नहीं.उन्हें सरकार से ऐसी उम्मीद नहीं थी। उन्होंने हमें धोखा दिया है। सरकार की नीयत साफ नहीं है वो लोकपाल को लेकर बिल्कुल भी गंभीर नहीं है। उसकी पोल खुल जायेगी इसलिए वो सीबीआई पर से अपना अंकुश हटाना नहीं चाहती है। सरकार ने हमारा और संसद का अपमान किया है। इधर सरकार ने भी अन्ना हजारे की मांगों के सामने झुकने से इनकार कर दिया है और कहा है कि लोकपाल के दायरे में सीबीआई नहीं आएगी। सीबीआई के प्रमुख का चुनाव प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश मिलकर करेंगे। वहीं प्रधानमंत्री भी कुछ शर्तों के साथ ही लोकपाल के दायरे में होंगे। अब यह बिल गुरुवार को लोकसभा में पेश किया जाएगा। इस पर विपक्ष क्या रुख अपनाता है यह देखने वाला मुद्दा होगा.अन्ना हजारे को मुंबई में 13 दिनों के अनशन की मंजूरी भी मिल गई है.

रविवार, 4 दिसंबर 2011

‘तू तो ना आए, तेरी याद सताए’





ताउम्र जिंदगी का जश्न मनाने वाले ‘सदाबहार’ अभिनेता देव आनंद सही मायने में एक अभिनेता थे, जिन्होंने अंतिम सांस तक अपने कर्म से मुंह नहीं फेरा।हिन्दी फिल्मों के सदाबहार अभिनेता देव आनंद के निधन से बॉलीवुड में ही नहीं पुरे देश में शोक की लहर दौड़ गई है। देव साहब की तस्वीर आज भी लोगों के जेहन में एक ऐसे शख्स की है, जिसका पैमाना न केवल जिंदगी की रूमानियत से लबरेज था, बल्कि जिसकी मौजूदगी आसपास के माहौल को भी नई ताजगी से भर देती थी।
इस करिश्माई कलाकार ने ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया...’ के दर्शन के साथ जिंदगी को जिया। यह उनकी 1961 में आई फिल्म ‘हम दोनों’ का एक सदाबहार गीत है और इसी को उन्होंने जीवन में लफ्ज-दर-लफ्ज उतार लिया था।
देव साहब ने शनिवार रात लंदन में दुनिया को गुडबॉय कह दिया। उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। वैसे तो वह जिंदगी के 88 पड़ाव पार कर चुके थे, लेकिन वह नाम जिसे देव आनंद कहा जाता है, उसका जिक्र आने पर अभी भी नजरों के सामने एक 20-25 साल के छैल-छबीले नौजवान की शरारती मुस्कान वाली तस्वीर तैर जाती है, जिसकी आंखों में पूरी कायनात के लिए मुहब्बत का सुरूर है।
देव साहब के अभिनय और जिंदादिली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब राज कपूर और दिलीप कुमार जैसे कलाकारों ने फिल्मों में नायक की भूमिकाएं करना छोड़ दिया था, उस समय भी देव आनंद के दिल में रूमानियत का तूफान हिलोरें ले रहा था और अपने से कहीं छोटी उम्र की नायिकाओं पर अपनी लहराती जुल्फों और हॉलीवुड अभिनेता ग्रेगोरी पैक मार्का इठलाती टेढ़ी चाल से वह भारी पड़ते रहे। ‘जिद्दी’ से शुरू होकर देव साहब का फिल्मी सफर, ‘जॉनी मेरा नाम’, ‘देस परदेस’, ‘हरे रामा हरे कृष्ण’ जैसी फिल्मों से होते हुए एक लंबे दौर से गुजरा और अपने अंतिम सांस तक वह काम करते रहे।
उनकी नई फिल्म ‘चार्जशीट’ रिलीज होने के लिए तैयार है और वह अपनी फिल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ की अगली कड़ी पर भी काम कर रहे थे। लेकिन इस नई परियोजना पर काम करने के लिए देव साहब नहीं रहे। बीते सितंबर में अपने 88वें जन्मदिन पर उन्होंने पीटीआई को दिए अंतिम साक्षात्कार में कहा था, ‘मेरी जिंदगी में कुछ नहीं बदला है और 88वें साल में मैं अपनी जिंदगी के खूबसूरत पड़ाव पर हूं। मैं उसी तरह उत्साहित हूं, जिस तरह 20 साल की उम्र में होता था। मेरे पास करने के लिए बहुत काम है और मुझे ‘चार्जशीट’ के रिलीज होने का इंतजार है।’
मैं दर्शकों की मांग के अनुसार, ‘हरे रामा हरे कृष्णा आज’ की पटकथा पर काम कर रहा हूं। देव साहब की फिल्में न केवल उनकी आधुनिक संवेदनशीलता को बयां करती थीं, बल्कि साथ ही भविष्य की एक नई इबारत भी पेश करती थीं।
वह हमेशा कहते थे कि उनकी फिल्में उनके दुनियावी नजरिए को पेश करती हैं और इसीलिए सामाजिक रूप से प्रासंगिक मुद्दों पर ही आकर बात टिकती है। उनकी फिल्मों के शीर्षक ‘अव्वल नंबर’, ‘सौ करोड़’, ‘सेंसर’, ‘मिस्टर प्राइम मिनिस्टर’ तथा ‘चार्जशीट’ इसी बात का उदाहरण है।

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

ऐसा क्यों होता है ?


ऐसा क्यों होता है?
ऐसा क्यों होता है? कभी-कभी हम किसी से कुछ कहना चाहते हैं, पर यह सोचकर चुप हो जाते हैं कि कहीं कोई हमारी बात का गलत मतलब न निकाल ले। बस हमारे दिल की बात दिल में ही रह जाती है। हां कभी कोई ऐसा भी चमत्कार हो जाता है जब हमारी बात जुबान बनकर किसी तक पहुंच जाती है और हम उस स्थिति से बच जाते हैं, जो हमारे कहने से बिगड़ भी सकती थी। हमारा दिल तो आईने की तरह बिल्‍कुल साफ है, लेकिन किसी की नजर में हम बुरे बन जाएं, यह भी हमें गंवारा नहीं। अगर वह शख्स खुद चलकर हमसे बात करता है, जो बात हमने कहनी थी, तो ऐसा लगता है जैसे हमारे मन के उपवन में फूल खिल उठे हों और हमारे दिल का बोझ एकदम हल्का हो जाता है। है न कितनी अजीब बात...हम इतने शक्तिवान होकर भी अंदर से कितने कमजोर हैं। हमारा व्यक्तित्व हमारी सबसे बड़ी पूंजी है, जिसकी वजह से यह दुनिया हमें जानती है।