शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

संचार व्यवस्था और अतंराष्ट्रीय मीडिया

सुभाष धूलिया


अतंराष्ट्रीय मीडिया परिदृश्य को समझने के लिए विश्व राजनीति पर एक निगाह डालना जरूरी हो जाता है। पिछले दो दशकों में दुनिया में कुछ ऐसे परिवर्तन आए हैं जिससे विकास की दिशा और दशा दोनों बदल गए। लेकिन यह कह सकते हैं अब तक कोई ऐसी विश्व व्यवस्था नहीं आ पायी है जिसमें स्थायित्व निहित हो। पिछली सदी की अस्सी-नब्बे के दशक की कुछ घटनाओं ने राजनीतिक, आर्थिक और सूचना संचार की अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं को एक तरह से फिर से पारिभाषित कर दिया जिससे विश्व राजनीति के चरित्र और स्वभाव में बड़े परिवर्तन आए। अस्सी के दशक में विकास के सोवियत समाजवादी मॉडल के चरमराने की प्रकिया शुरु हुई और 1991 में सोवियत संघ का अवसान हुआ। इस घटना को पश्चिमी उदार लोकतंत्र और मुक्त अर्थव्यवस्था के विजय के रूप में देखा गया। इसी दशक में सूचना क्रांति ने भी बेमिसाल ऊंचाइयां हासिल की और इसी के समांतर दुनिया भर में मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर उन्मुख आर्थिक सुधारों की प्रकिया भी शुरु हुई। इस आर्थिक प्रकिया के पूरक के रूप में भूमंडलीकरण ने भी नई गति हासिल की।

इन घटनाओं के उपरांत विश्व में एक नई सूचना और संचार व्यवस्था का भी उदय हुआ। एक रूप से इस व्यवस्था ने विकासशील देशों की उन तमाम दलीलों को ठुकरा दिया जो उन्होंने विश्व में एक नई सूचना और संचार व्यवस्था कायम करने के लिए छठे और सातवें दशक में पेश की थीं और जिन्हें 1980 में यूनेस्को मे मैक्बाइट कमीशन की रिपोर्ट के रूप में एक संगठित अभिव्यक्ति प्रदान की। विकासशील देशों की मांग थी कि विश्व में सूचना और समाचारों के प्रवाह में असंतुलन है और फिर इन पर विकसित देशों की चंद मीडिया संगठनों का नियंत्रण है। इसकी वजह से विकसशील देशों के बारे में नकारात्मक सूचना और समाचार ही छाए रहते हैं जिससे विकासशील देशों की नकारात्मक छवि ही बनती है जबकि विकसित देशों को लेकर सबकुछ सकारात्मक है।
यूनेस्को ने इन तमाम मसलों को संबोधित करने के लिए मैक्बाइट कमीशन का गठन किया और इसने 1980 में 'मैनी वॉइसेज वन वर्ल्ड'( दुनिया एक, स्वर अनेक) शीर्षक से अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें विश्व में सूचना और समाचारों के प्रवाह में असंतुलन को दूर करने के लिए अनेक सिफारिशें की गयी थीं। लेकिन अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों ने इन सिफारिशों को इस आधार पर खारिज कर दिया कि इनमें असंतुलन को दूर करने के नाम पर सरकारी हस्तक्षेप का न्यौता निहित है और इस तरह ये सिफारिशें प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करती हैं। अमेरिका, ब्रिटेन और सिंगापुर तो इस मसले पर यूनेस्को से अलग हो गए और इन देशों के अलग होने से यूनेस्को को मिलने वाली आर्थिक मदद बंद हो गयी जिसकी वजह से यूनेस्को एक तरह से पंगु हो गया।

लेकिन अस्सी-नब्बे दशक की घटनाओं के उपरांत इस तरह की नई विश्व सूचना और संचार व्यवस्था की मांग भी बेमानी हो गयी। इसका सबसे मुख्य कारण तो यही था कि इस मांग को करने वाले सबसे प्रबल स्वर ही शांत हो गए। विकासशील देशों में इस मांग को उठाने वाले अधिकांश देशों ने आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के मॉडल का रास्ता छोड़कर उदार भूमंडलीकरण का रास्ता अपना लिया था। दूसरा प्रमुख कारण यह भी था कि यहां आते-आते सूचना क्रांति एक ऐसी मंजिल तक पहुंच चुकी थी जिसमें दूरसंचार,सेटेलाइट और कम्प्यूटर प्रोद्योगिकी के बल पर एक ऐसे तंत्र का उदय हुआ जिसमें सूचना समाचारों के प्रवाह पर किसी भी तरह का अंकुश लगाना संभव ही नहीं रह गया। विकासशील देश सूचना-समाचारों के जिस एकतरफा प्रवाह की शिकायत करते थे उसका आवेग इस नए दौर अब पहले से कहीं अधिक तेज हो गया और इसे रोक पाना वास्तविक रुप से संभव नहीं रह गया था।

नया परिदृश्य

सूचना क्रांति से निश्चय ही दुनिया एक तरह के वैश्विक गांव में परिवर्तित हो गयी। सूचना -समाचारों और हर तरह के मीडिया उत्पादों का प्रवाह बाधाविहीन होने के उपरांत वैश्विक मीडिया के स्वरूप में भी बड़ा परिवर्तन आया। पहले वैश्विक मीडिया जो विश्व भर में सूचना और समाचारों के प्रवाह का नियंत्रण करता था लेकिन उसका काफी हद तक एक देश के भीतर इसका सीधा नियंत्रण नहीं होता था-यानी नियंत्रण का स्वरूप अप्रत्यक्ष था और ये स्वदेश संगठनों से माध्यम से ही घरेलू बाजार में मीडिया उत्पाद वितरित करते थे। लेकिन आज वैश्विक मीडिया का प्रसार देशों की सीमा के भीतर तक हो चुका है जहां वो प्रत्यक्ष रूप से मीडिया के बाजार में अपनी उपस्थिति दर्ज कर चुके हैं। आज भले ही सूचना साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद से जुड़े सवाल समय-समय पर उठते रहते हों और अनेक परिस्थितियों में इनका प्रतिरोध विभिन्न तरह के कट्टरपंथ के रूप में उभर रहा है( धार्मिक कट्टरपंथ और आतंकवाद के सामाजिक आधार का एक कारण यह भी है) लेकिन फिर भी विभिन्न देशों की सीमाओं के संदर्भ में इन अहसासों का कोई खास प्रतिरोध नहीं है।

मीडिया उत्पादों के वैश्विक प्रवाह के बाधाविहीन बनने के बाद एक नए तरह का सूचना और संचार का परिदृश्य पैदा हुआ है।
समकालीन परिदृश्य में मीडिया उत्पादों और इनके वितरण के माध्यमों में भी बुनियादी परिवर्तन आ रहे हैं। प्रिंट,रेडियो टेलीविजन और मल्टीमीडिया इंटरनेट बहुत सारे मीडिया उत्पाद और व्यापक विकल्प पेश कर रहे हैं। विकसित देशों इस उभरते बाजार में प्रिंट मीडिया पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। विकसित देशों में समाचार पत्रों का सर्कुलेशन घट रहा है और अनेक पुराने और प्रतिष्ठित मीडिया संगठन बंद होकर बाजार से बाहर हो गए हैं। नए बाजार में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए लगभग हर समाचार पत्र और मीडिया संगठन इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहा है और इंटरनेट पर ये उपलब्ध हैं। लेकिन इंटरनेट पर इनकी मौजूदगी ने संकट को दूर करने की बजाय इसमें एक नया आयाम जोड़ दिया है। दरअसल विकसित देशों में जहां लगभग तीन-चौथाई लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और वह समाचार पत्रों को इंटरनेट पर ही पढ़ लेते है। इस वजह से समाचार पत्र पढे़ तो जा रहे हैं लेकिन वह सर्कुलेशन के दायरे से बाहर हो रहे और इसका समाचार पत्रों की बिक्री पर एक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

विकसित देशों में मीडिया बाजार एक ठहराव की स्थिति में आ गया है और एक मीडिया की कीमत पर दूसरे मीडिया के चयन की प्रक्रिया शुरु हुई है। इस कारण प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और इंटरनेट के बीच एक तरह होड़ शुरु हो गयी है। भारत जैसे विकसाशील देशों में मीडिया बाजार में अभी ठहराव की स्थिति पैदा नहीं हुई है और हर मीडिया प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और इंटरनेट का विस्तार हो रहा है। समाज के नए-नए तबके मीडिया बाजार में प्रवेश कर रहे हैं और अपनी क्रय शक्ति के आधार पर मीडिया उत्पादों के उपभोक्ता बन रहे हैं। भारत में यह माना जा रहा है कि लगभग 30 करोड़ लोग मध्यवर्गीय हो चुके हैं जिनके पास अतिरिक्त क्रय शक्ति है और इस कारण वे नए-नए उपभोक्ता उत्पाद के खरीददार होने की क्षमता रखते हैं। एक अनुमान के मुताबिक भारत में हर वर्ष 3 करोड़ लोग मध्यमवर्ग की श्रेणी में शामिल हो रहे हैं और इन लोगों की क्रय शक्ति इतनी बढ़ रही है कि वे विभिन्न तरह के मीडिया उत्पादों के उपभोक्ता बन रहे हैं।
इस पृष्ठभूमि में लोगों के मीडिया उत्पादों के उपयोग में भी परिवर्तन आ रहे हैं। अगर आज प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और इंटरनेट के उपभोक्ताओं का तुलनात्मक उपभोग पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि लोगों की मीडिया उत्पादों को खरीदने की प्राथमिकताओं में लगातार परिवर्तन आ रहे हैं। इस संदर्भ में हम बात का उल्लेख करना सामयिक होगा कि रेडियो माध्यम की जब लगभग अनदेखी की जा रही थी तो अचानक ही इस माध्यम ने जबर्दस्त वापसी की और भारत में पिछले दो वर्षों में रेडियो माध्यम की वृद्धि दर अन्य माध्यमों से कहीं अधिक रही।

नया वैश्विक मीडिया

समकालीन मीडिया परिदृश्य में केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण की प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं। एक ओर तो नई प्रोद्योगिकी और इंटरनेट ने किसी भी व्यक्ति विशेष को अपनी बात पूरे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तक पहुंचाने का मंच प्रदान किया है तो दूसरी ओर मुख्यधारा मीडिया में केन्द्रीकरण की प्रक्रिया भी तेज हुई है। पूरे विश्व और लगभग हर देश के भीतर मीडिया शक्ति का केन्द्रीकरण हो रहा है। एक ओर तो मीडिया का आकार विशालकाय होता जा रहा है और दूसरी ओर इस पर स्वामित्व रखने वाले संगठनों कॉर्पोरेशनों की संख्या कम होती जा रही है। पिछले कुछ दशकों से यह प्रक्रिया चल रही है और अनेक बड़ी मीडिया कंपनियों ने छोटी मीडिया कंपनियों का अधिग्रहण कर लिया है। इसके अलावा कई मौकों पर बड़ी-बड़ी कंपनियों के बीच विलय से भी मीडिया सत्ता के केन्द्रीकरण को ताकत मिली है।

आज वैश्विक संचार और सूचना तंत्र पर चन्द विशालकाय बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशनों का प्रभुत्व है जिनमें से अधिकांश अमेरिका में स्थित हैं। बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशन स्वयं अपने आप में व्यापारिक संगठन तो हैं ही लेकिन इसके साथ ही ये सूचना-समाचार और मीडिया उत्पाद के लिए एक वैश्विक बाजार तैयार करने और एक खास तरह के व्यापारिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए ही काम करते हैं। इन कॉर्पोरेशनों के इस व्यापारिक अभियान में पत्रकारिता और सांस्कृतिक मूल्यों की कोई अहमियत नहीं होती। इस रूझान को आज राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्ट रूप से भी देखा जा सकता है। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि वैश्विक मीडिया वैश्विक व्यापार के अधीन ही काम करता है और दोनों के उद्देश्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं।
पूरी वैश्विक मीडिया व्यवस्था पर इस वक्त मुश्किल से नौ-दस मीडिया कॉर्पोरेशनों का प्रभुत्व है और इनमें से अनेक कॉर्पोरेशनों का एक-तिहाई से भी अधिक कारोबार अपने मूल देश से बाहर दूसरे देशों में होता है। उदाहरण के लिए रूपर्ट मडॉक की न्यूज कॉर्पोरेशन का अमेरिका ,कनाडा, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, एशिया और लैटिन अमेरिका में मीडिया के एक हिस्से पर स्वामित्व है। जर्मनी के बर्टैल्समन्न कॉर्पोरेशन का विश्व के 53 देशों की 600 कंपनियों में हिस्सेदारी है। विश्व की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी एओएल टाइम वार्नर भी अमेरिका की है और विश्व की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी वियाकॉम कंपनी भी अमेरिका की है जिनका विश्व के मीडिया बाजार के एक बड़े हिस्से पर नियंत्रण है। सोनी कॉर्पोरेशन शुरु में इलेक्ट्रोनिक्स के उत्पादों में नाम कमा चुका था लेकिन आज एक मीडिया कंपनी के रूप में दुनिया भर में इसकी एक हजार सहयोगी कंपनियां काम कर रही हैं। इनके अलावा डिज्नी, वियाकॉम, एमटीवी, टेली-कम्युनिकेशन इंक, यूनीवर्सल( सीग्राम), माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और याहू का भी एक बड़े बाजार पर कब्जा है जो लगभग दुनिया के हर देश में फैला हुआ है। अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक जैसी हथियार बनाने वाले कॉर्पोरेशन ने भी मीडिया जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कर दी है और अमेरिका के एक प्रमुख समाचार चैनल एनबीसी पर इसका नियंत्रण है।

इन विशालकाय कॉर्पोरेशनों के बाद दूसरी परत के भी मीडिया संगठन हैं जिनका व्यापार दुनिया भर में बढ़ रहा है। इस वक्त विश्व में मीडिया और मनोरंजन उद्योग सबसे तेजी से उभरते सेक्टरों में से एक है और रोज नई-नई कंपनियां अपना नया और अलग मीडिया उत्पाद लेकर बाजार में कूद रही हैं। अधिकांश बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशन संचार के क्षेत्र के जुड़े कई सेक्टरों में काम कर रहे हैं जिनमें समाचार-पत्र और रेडियो और टेलीविजन चैनल के अलावा पुस्तक प्रकाशन, संगीत, मनोरंजन पार्क और अन्य तरह के मीडिया और मनोरंजन उत्पाद शामिल हैं। प्रोद्योगिक क्रांति ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए अपार संभावनाओं को जन्म दिया है। आज अधिकांश बड़े मीडिया कॉर्पोरेशन दुनिया भर में अपनी गतिविधियां चला रहे हैं। अनेक कॉर्पोरेशनों ने या तो किसी देश में अपनी कोई सहयोगी कंपनी खोल ली है या किसी देशी कंपनी के साथ साझेदारी कर ली है। हमारे देश में ही अनेक बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशनों के भारतीय संस्करण बाजार में उपलब्ध हैं। ये वैश्विक संगठन अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए स्थानीयकरण की ओर उन्मुख हैं और स्थानीय जरूरतों और रुचियों के अनुसार अपने उत्पादों को ढाल रहे हैं। इस तरह भूमंडलीकरण स्थानीयता का रूप ग्रहण कर रहा है और बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशनों की ये स्थानीयता दरअसल उनके ही वैश्विक उपभोक्ता मूल्यों और व्यापार संस्कृति को प्रोत्साहित करते हैं।

इस संदर्भ में सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की अवधारणा भी नया स्वरूप ग्रहण कर रही है और आज यह अवधारणा पहले से कहीं अधिक व्यापक गहरी और विशालकाय हो चुकी है। वैश्विक सूचना और संचार तंत्र पर आज पश्चिमी देशों का नियंत्रण और प्रभुत्व उससे कहीं अधिक मजबूत हो चुका है जिसे लेकर कुछ दशक पहले विकासशील देशों में विरोध के प्रबल स्वर उठ रहे थे। लेकिन आज अगर सांस्कृतिक उपनिवेशवाद पर पहले जैसी बहस नहीं चल रही है तो इसका मुख्य कारण यही है कि शीत युद्ध के बाद उपरांत उभरी विश्व व्यवस्था में विकासशील देशों की सामुहिक सौदेबाजी की क्षमता लगभग क्षीण हो गयी है। दूसरा शीत युद्ध के बाद दो विचारधाराओं के बीच संघर्ष का अंत हो गया और पश्चिमी विचारधारा ही प्रभुत्वकारी बन गयी और इतिहास के इस दौर में इसका कोई विकल्प नहीं उभर पाया। इन कारणों की वजह से पश्चिमी शैली की उदार लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था, आर्थिक स्तर पर मुक्त अर्थतंत्र और इनके विस्तार के लिए भूमंडलीकरण और विश्व बाजार के विस्तार - यही आज की विश्व व्यवस्था के मुख्य स्तंभ हैं। राजनीति और आर्थिकी के इस स्वरूप के अनुरूप ही सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य ढल रहे हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि मौजूदा विश्व व्यवस्था में पश्चिमी जीवन शैली और सांस्कृतिक मूल्यों का ही विस्तार हो रहा है और वैश्विक मीडिया इसमें अग्रणी भूमिका अदा कर रहा है। दरअसल भूमंडलीकरण की मौजूदा प्रक्रिया एक " टोटल पैकेज" है जिसमें राजनीति, आर्थिकी और संस्कृति तीनों ही शामिल हैं। मीडिया नई जीवनशैली और नए मूल्यों का इस तरह सृजन करता है इससे नए उत्पादों की मांग पैदा की जा सके और एक बाजार का सृजन किया जा सके। अनेक अवसरों पर मीडिया ऐसे उत्पादों की भी मांग पैदा करता है जो स्वाभाविक और वास्तविक रूप से किसी समाज की मांग नहीं होते हैं।

निष्कर्ष के तौर पर यह कह सकते हैं कि शीत युद्ध के उपरांत उभरी विश्व व्यवस्था पर राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पश्चिम का दबदबा है और वैश्विक मीडिया को भी यही नियंत्रित करता है। मीडिया पर नियंत्रण का मतलब किसी भी व्यक्ति, देश, संस्कृति, समाज आदि की छवि पर भी नियंत्रण करना है और इसी नियंत्रण से सही-गलत के पैमाने निर्धारित होते हैं। मीडिया के नियंत्रण से विरोधी को शैतान साबित किया जा सकता है और अपनी तमाम बुराइयों को दबाकर अपनी थोड़ी सी अच्छाइयों का ढिंढोरा पीटा जा सकता है। मीडिया ऐसे मूल्य और मानक तय करता है जिनके आधार पर यह तय होता है कि कौन सा व्यवहार सभ्य है और कौन सा असभ्य ? इसी निर्धारण से सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की सीमा शुरु होती है।

हिन्दी मीडिया

भारतीय मीडिया के मानचित्र पर भारी परिवर्तन आ रहे हैं। इनमें सबसे बड़ा और एक हद तक ऐतिहासिक परिवर्तन भारतीय भाषाओं और खास तौर से हिन्दी भाषा के मीडिया का भारी विस्तार है। देश में एक तरह की मीडिया क्रांति अगर आयी है तो इसका मुख्य कारण हिन्दी मीडिया की चहुंमुखी वृद्धि और विकास है। सत्तर के दशक में नई प्रोद्योगिकी के आने के समय से ही हिन्दी मीडिया का विस्तार शुरु हो गया था। नई प्रोद्योगिकी से समाचारों को कई केन्द्रों से प्रकाशित करना संभव हो गया। इससे मीडिया तक लोगों की पहुंच का विस्तार हुआ और इसी के साथ साक्षरता बढ़ने से नए-नए लोग समाचार पत्र पढ़ने लगे और क्रयशक्ति बढ़ने से भी अधिक लोग समाचार पत्र खरीदने लगे। साक्षरता के संदर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है हिन्दी भाषी क्षेत्रों में नव साक्षर केवल हिन्दी ही पढ़ लिख सकते थे जबकि अंग्रेजी पढ़-लिख सकने वाले पहले से ही समाचारपत्रों के पाठक थे। इसलिए पिछले कुछ दशकों में हिन्दीभाषी क्षेत्रों में समाचारपत्रों जितना भी विस्तार हुआ है उसका बहुत बड़ा हिस्सा हिन्दी मीडिया के खाते में ही जाता है। 70 के दशक के दौरान देश में राजनीतिक संघर्ष भी तेज हो चुका था। यह दौर विचारधारात्मक राजनीति संघर्ष का दौर था और इस राजनीतिक कारण से भी समाचारपत्रों में लोगों की रुचि बढ़ती चली गयी जिसकी वजह से समाचार पढने (खासकर हिन्दी समाचारपत्र) वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई।

आज देश में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले पहले और दूसरे नंबर के समाचार पत्र हिन्दी में हैं। देश के दस सबसे बड़े समाचार पत्रों में 9 हिन्दी भाषा के हैं। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि सत्तर के दशक में हिन्दी मीडिया में एक क्रांति की शुरुआत हुई। इस दौर में हिन्दी मीडिया का जबर्दस्त विस्तार हुआ और साथ ही इसके ढांचे और स्वामित्व में भी बड़े परिवर्तन आए। परंपरागत रूप से भारतीय मीडिया को राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, और जिला स्तर पर बांटा जाता था। इस समाचार पत्र की क्रांति के दौर में क्षेत्रीय मीडिया का सबसे अधिक विस्तार हुआ और राष्ट्रीय मीडिया के भी उस हिस्से का भी विस्तार हुआ जिसने क्षेत्रीय मीडिया में प्रवेश किया। समाचार पत्रों के अनेक स्थानों के प्रकाशन और समाचारों के स्थानीयकरण से जिला स्तर का वह छोटा प्रेस विलुप्त हो जिसका सर्कुलेशन हजार-दो हजार होता था और जो स्थानीय समस्याओं पर केन्द्रित था। अब बड़े अखबार ही स्थानीय अखबार की जरूरतों को पूरा करने लगे।

नब्बे के दशक के मीडिया का व्यापारीकरण और विस्तार भी भारतीय भाषाओं पर ही केन्द्रित रहा है और इस विस्तार का सबसे बड़ा हिस्सा हिन्दी मीडिया का ही था। पिछले कुछ समय में मीडिया और मनोरंजन उद्योग में जो बेमिसाल वृद्धि हुई है वह मुख्य रूप से भारतीय और हिन्दी भाषा में ही हुई है। टेलीविजन ने मात्र दस वर्षों में एक बड़े उद्योग का रूप धारण कर लिया है। टेलीविजन ने आज देश के राजनीतिक और सामाजिक मानचित्र पर अपने लिए अहम और महत्वपूर्ण भूमिका अर्जित कर ली है। आज देश के पूरे मीडिया और मनोरंजन उद्योग में टेलीविजन का हिस्सा सबसे अधिक है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा केबल टेलीविजन का बाजार है। दरअसल टेलीविजन माध्यम अपने स्वभाव से अंतरंग मीडिया है और साथ ही यह मीडिया लोकप्रिय संस्कृति से भी काफी गहरे से संबद्ध रहता है। इस कारण टेलीविजन मीडिया का हिन्दी भाषी राज्यों में जो विस्तार हो रहा है वह एर तरह से हिन्दी मीडिया का ही विस्तार है। सिनेमा और मनोरंजन के क्षेत्र में हिन्दी मीडिया केवल हिन्दीभाषी प्रदेशों तक ही सीमित नहीं है बल्कि पूरे देश में ही अच्छा-खासा बाजार पैदा कर चुका है। इस इकाई में भारतीय मीडिया के विकास के जिन रुझानों का विवरण दिया गया है उसी दिशा में हिन्दी मीडिया की भी वृद्धि और विकास हो रहा है। दरअसल भारत की मौजूदा मीडिया क्रांति के बाद हिन्दी मीडिया का ही सबसे तेजतर विस्तार हुआ है और आने वाले समय में यह रुझान और भी प्रबल होने की संभावना है।

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