शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

साम्राज्यवाद को पोषित करता सूचना तंत्र

(लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
अमरीकी समाचार माध्यम दोहरे उद्देश्य से कार्य करते हैं। पहला उद्देश्य, अन्य देशों को वही सूचनाएं दी जाएं, जिस प्रकार की सूचनाओं से सृमद्ध देशों के हितों की पूर्ती होती हो। द्वितीय, विकासशील देशों अथवा पिछड़े देशों को अपमानित किया जाए, उनमें हीनभावना भरी जाए और उनमें जननायकों की मूर्ति को खंडित किया जाए, ताकि धीरे-धीरे ये देश अपना आत्मविश्वास खो बैठें। आत्मविश्वास से हीन देशों पर सांस्कृतिक व आर्थिक कब्जा जमा लेना अमरीका के लिए बहुत आसान हो सकता है। इसलिए अमरीका सूचना क्रांति का उपयोग विश्व में अपना सांस्कृतिक साम्राज्यवाद फैलाने के लिए कर रहा है…
विश्व के इतिहास में 17वीं शताब्दी को औद्योगिक क्रांति का युग माना जाता है। औद्योगिक क्रांति ने जिस साम्राज्यवाद को जन्म दिया, उससे सारा विश्व, विशेषकर एशिया व अफ्रीका त्रस्त रहे और शोषण का निकृष्ट रूप भी देखा। इसी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के संयोग ने सारे विश्व को कालांतर में शीत युद्ध में धकेला। यूरोप ने दो-दो युद्धों का सामना किया, जिसे इतिहास में प्रायः विश्व युद्ध भी कहा जाता है। इक्कीसवीं शताब्दी तक आते-आते स्थिति बदली और सूचना युग का सूत्रपात हुआ। एक प्रकार से ज्ञान और सूचना का विस्फोट ही हुआ। नए युग में सूचना प्रौद्योगिकी एक नई शक्ति के रूप में उभरी। शस्त्र बल से भी ज्यादा सूचना प्रौद्योगिकी का बल होगा, ऐसा प्रायः स्वीकार किया जाने लगा है। सूचना ज्ञान क्रांति का उपयोग आने वाले विश्व में किस प्रकार होगा, इसके संकेत अभी से उभरने प्रारंभ हो गए हैं। युद्ध के समाप्त हो जाने और सोवियत रूस के पतन के बाद वैसे भी दुनिया में अमरीका का हर क्षेत्र में एकाधिकार बढ़ता जा रहा है। यह एकाधिकार इस सीमा तक बढ़ता जा रहा है कि यूरोप के देश, जो भाषा संस्कृति के लिहाज से अपने आप को अमरीका के स्वाभाविक सह-यात्री मानते हैं, की यूरोपीय पहचान व आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर एक मंच पर एकत्रित होने का प्रयास कर रहे हैं।
सूचना एवं ज्ञान के क्षेत्र में हुए इस विस्फोट की व्याख्या एक अन्य दिशा में भी करनी होगी। छोटे, गरीब और विकासशील देशों के पास सूचना प्राप्त करने के साधन नहीं हैं। ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में हो रही प्रगति का व्यावहारिक स्तर पर लाभ उठाने की क्षमता नहीं है। इसलिए साधन संपन्न देश तृतीय देशों को उतनी सूचना ही देते हैं, जितनी संपन्न देशों के अपने हितों के लिए जरूरी होती है। समाचारों एवं घटनाओं की व्याख्या एवं विश्लेषण भी उसी प्रकार से किया जाता है, जिससे साधन संपन्न देशों का हित सधता है। अमरीका चाहता है कि सारी दुनिया प्रत्येक सूचना एवं घटना को उसी के चश्मे से देखे, उसी के नजरिए से सोचे। इसलिए उसने सूचना माध्यमों के स्रोतों पर ही एकाधिकार कर लिया है। भारत समेत तृतीय विश्व के देशों उन्हीं सूचना स्रोतों पर निर्भर हैं, जो अमरीका के कब्जे में हैं। कुछ उदाहरणों से बात और स्पष्ट हो जाएगी। जिन दिनों पंजाब में आतंकवाद का जोर था और सारा पंजाब आतंकवादियों से त्रस्त था, उन दिनों अमरीका के समाचार पत्रों में पंजाब में आतंकवादियों के अमानवीय कारनामे प्रमुखता से छपते थे। अमरीका सरकार पंजाब में आतंकवाद को एक प्रकार से प्रोत्साहित ही कर रही थी। उद्देश्य शायद यह रहा होगा कि दिल्ली सदा तनाव में रहेगी, तो प्रगति भी रुकेगी और अंततः अमरीका की शरण में भी आएगी। यहां तक तो ठीक था। लेकिन अमरीकी सरकार ने दुर्भाग्य से अमरीकी लोग आतंकवादियों के साथ सहानुभूति प्रकट नहीं कर रहे थे।
अमरीका के लोग आतंकवाद और आतंकवादियों को घृणा करते हैं। यह अजीब विरोधाभास था। तब न्यूयार्क टाइम्स में पंजाब के आतंकवादियों ने एक नया शब्द जड़ा, ‘मिलिटेंट’। इस एक शब्द ने सारी पंजाब समस्या को एक नया आयाम दे दिया। अब पंजाब समस्या अमरीका और पाकिसतान द्वारा समर्थित आतंकवाद की समस्या नहीं रही, बल्कि एक राजनीतिक-सामाजिक समस्या बन गई। अमरीका में करोड़ों डालर तो आ ही रहे थे, धीरे-धीरे भारत के अंग्रेजी समाचार पत्रों ने भी न्यूयार्क टाइम्स के पाठ को ईमानदारी से ग्रहण किया और भारतीय भाषाओं के समाचार पत्र तो समाचारों व विश्लेषण के लिए अंग्रेजी स्रोतों पर ही निर्भर हैं। इस प्रकार भारत समेत सारे विश्व के समाचारों में पंजाब के आतंकवादी देखते-देखते उग्रवादी बन गए। अमरीकी समाचार माध्यम दोहरे उद्देश्य से कार्य करते हैं। पहला उद्देश्य, उन्हें वहीं सूचनाएं और उसी प्रकार की सूचनाएं दी जाएं जिस प्रकार की सूचनाओं से सृमद्ध देशों के हितों की पूर्ती होती हो। द्वितीय, विकासशील देशों अथवा पिछड़े देशों को अपमानित किया जाए, उनमें हीनभावना भरी जाए और उनमें जननायकों की मूर्ती को खंडित किया जाए, ताकि धीरे-धीरे ये देश अपना आत्मविश्वास खो बैठें। आत्मविश्वास से हीन देशों पर सांस्कृतिक व आर्थिक कब्जा जमा लेना अमरीका के लिए बहुत आसान हो सकता है। इसलिए अमरीका सूचना क्रांति का उपयोग विश्व में अपना सांस्कृतिक साम्राज्यवाद फैलाने के लिए कर रहा है।
यह सारी पृष्ठभूमि इसलिए जरूरी है, ताकि उस देश की मानसिकता को समझ लिया जाए जिसने 21वीं सताब्दी की शुरूआत में ही इस सूचना क्रांति को इस प्रकार नियंत्रित कर लिया है, जिससे उसके अपने हितों की साधना हो सके। इन हितों में आर्थिक हित तो हैं ही, पांथिक हित भी हैं, जिनमें ईसाई मिशनरियों द्वारा तीसरे विश्व के देशों में किया जा रहा धर्म परिवर्तन भी एक प्रमुख हित है। इस संपूर्ण विश्व पृष्टभूमि में हमें यह जांचना-परखना होगा कि 21वीं सताब्दी में सूचना क्रांति और उससे जुड़ी हुई पत्रकारिता को भारत की प्रगति के सरोकारों से कैसे जोड़ा जा सकता है। इसके लिए अमरीकी सूचना तंत्र से निकली हुई पत्रकारिता की ऐसी अनेक बारूदी सुरंगों की तलाश करनी होगी, जो यत्र-तत्र-सर्वत्र जरा सा पांव पड़ने पर ही फट पड़ती है और भारत के आकाश में जहरीली धुआं फैला देती हैं। ऐसे वातावरण में जब पश्चिमी मीडिया की विश्वसनीयता संदिग्ध है और मानसिकता एशिया व अफ्रीका विरोधी है, तब भारत में पत्रकारों व पत्रकारिता की भूमिका क्या हो सकती है या ज्यादा स्पष्ट कहें तो पत्रकारिता के भारतीय सरोकार क्या होने चाहिएं?
भारत में पत्रकारिता से जुड़े तमाम क्रिया कलापों को दो हिस्सों में बांटना होगा। पहला हिस्सा उस पत्रकारिता का है, जिसका माध्यम भारतीय भाषाएं हैं। केवल संविधान की आठवीं अनुसूची में दी गई भारतीय भाषाएं ही नहीं, बल्कि उसमें इतर भी भारत के विभिन्न अंचलों में बोली जाने वाली भाषाएं। द्वितीय पत्रकारिता का वह क्षेत्र, जो विदेशी भाषाओं के माध्यम से व्यक्त होता है। इसमें अंग्रेजी, फ्रांस, जर्मन, इतालवी इत्यादि भाषाओं के दैनिक साप्ताहिक समाचार पत्रों को शामिल किया जा सकता है। भारत में इस क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा को छोड़कर अन्य यूरोपीय भाषाओं के समाचार पत्र इक्के-दुक्के छपते हैं। उदाहरण के लिए गोवा में पुर्तगाली व पुड्डुचेरी में फ्रांसीसी भाषा की पत्र-पत्रिकाएं छपती हैं।
साम्राज्यवादी शक्तियों की साजिश है कि भारत का शासन तंत्र उन लोगों के हाथ में रहे, जिनके मूल्य, जीवन शैली, सांस्कृतिक जड़ें पश्चिमी भूमि में हों। अंग्रेजी भाषा का मीडिया विशेषकर इसी अभिजात्य वर्ग के लिए माल परोसता है और यह वर्ग उसकी बड़े चाव से जुगाली करता है। अब जिस माल की जुगाली यह नौकरशाही कर रही है, उसका भी कार्य है कि इस मीडिया को प्रतिष्ठा भी प्रदान करे और उसे जीवन रस भी देता रहे। इसलिए नौकरशाही ने एक षड्यंत्र के तहत अंग्रेजी मीडिया को राष्ट्रीय घोषित कर दिया और भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता को क्षेत्रीय पत्रकारिता घोषित कर दिया। यदि किसी ने सचिवालयों की जमीन से नाक लगा कर इस षड्यंत्र को सूंघा होगा, तो उसने जरूर पाया होगा कि इसी नौकरशाही ने जगह-जगह अपनी फाइलों में नियम बना रखे हैं कि सरकारी विज्ञापन लाजिमी एक-दो राष्ट्रीय समाचार पत्रों में जाना चाहिए और साथ ही राष्ट्रीय समाचार पत्रों की सूची में केवल एक दो महानगरों में प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी दैनिक ही हैं। इस अंग्रेजी मीडिया की आम आदमी के लिए अनिवार्यता बढ़ती है और मीडिया की प्राण रक्षा हो जाती है।
ई-मेलः kuldeepagnihotri@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं: