पश्चिम बंगाल के छोटे से शहर देगागा में इस वर्ष दुर्गा पूजा नहीं मनाई गई, क्योंकि तृणमूल काग्रेस से जुड़े एक दबंग मुस्लिम नेता ने हिंदू आबादी पर सुनियोजित हिंसा की। इस पर सत्ताधारी लोग और मीडिया, दोनों लगभग मौन रहे। स्थानीय हिंदुओं को भय है कि उन पर हमले करके आतंकित कर उन्हें वहां से खदेड़ भगाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। असम और बंगाल में कई स्थानों पर यह पहले ही हो चुका है, इसलिए इस जनसाख्यिकी आक्रमण को पहचानने में वे भूल नहीं कर सकते। वस्तुत: ऐसी घटनाओं पर राजनीतिक मौन ही इसके वास्तविक चरित्र का सबसे बड़ा प्रमाण है।
क्या किसी शहर में मुस्लिमों द्वारा किसी बात पर विरोध-स्वरूप ईद न मनाना भारतीय मीडिया के लिए उपेक्षणीय घटना हो सकती थी। चुनी हुई चुप्पी और चुना हुआ शोर-शराबा अब तुरंत बता देता है कि किसी साप्रदायिक हिंसा का चरित्र क्या है। पीड़ित कौन है, उत्पीड़क कौन। जब भी हिंदू जनता हिंसा और अतिक्रमण का शिकार होती है, राजनीतिक वर्ग और अंग्रेजी मीडिया मानो किसी दुरभिसंधि के अंतर्गत मौन हो जाता है। यह आसानी से इसलिए संभव होता है, क्योंकि भारत में कोई संगठित हिंदू राजनीतिक समूह नहीं है। हिंदू भावनाएं, दुख या चाह को व्यक्त करने वाला कोई घोषित या अघोषित संगठन भी नहीं है।
कुछ लोग भाजपा को हिंदू राजनीति से जोड़ते हैं, किंतु इस पर हिंदुत्व थोपा हुआ है। स्वयं भाजपा ने कभी हिंदू चिंता को अपनी टेक घोषित नहीं किया। इसने पिछला लोकसभा चुनाव भी विकास और मजबूती के नारे पर ही लड़ा था। गुजरात, मध्य प्रदेश या बिहार में भी वह हिंदू चिंता की अभिव्यक्ति से बचती है। मुस्लिम संगठन ठीक उलटा करते हैं। इसलिए भाजपा पर हिंदू साप्रदायिक होने या हिंदुत्व से भटकने के दोनों आरोप गलत हैं, जो उसके विरोधी या समर्थक लगाते हैं। विरोधी इसलिए, क्योंकि किसी न किसी को हिंदू-साप्रदायिक कहना उनकी जरूरत है ताकि वे मुस्लिम वोट-बैंक के सामने अपना हाथ फैलाएं। समर्थक भाजपा पर भटकने का आरोप इसलिए लगाते हैं, क्योंकि हिंदू चिंता को उठाने वाला कोई दल न होने के कारण वे भाजपा पर ही अपनी आशाएं लगा बैठते हैं। भाजपा इन आशाओं का विरोध नहीं करती, पर उसने कभी इन आशाओं को पूरा करने का वचन भी नहीं दिया। राम मंदिर बनाने की बात या धारा 370 हटाने की आवश्यकता बताना-हिंदू राजनीति नहीं है। अयोध्या में ताला खुलवाकर पूजा की शुरुआत तो राजीव गांधी ने ही की थी। इसी प्रकार धारा 370 के अस्थायी होने की बात तो संविधान में काग्रेस ने ही लिखी थी।
अत: इक्का-दुक्का भाजपा नेताओं द्वारा कभी-कधार कुछ कहना हिंदू राजनीति नहीं है। यह कभी-कभार हिंदू भावनाओं को उभारती या उपयोग करती है, पर यह नीति भारत में प्रचलित हिंदू-विरोधी सेक्युलरवाद से पार नहीं पा सकती। उसी तरह वह हिंदुत्व भी अकर्मक है जिसमें खुल कर सामने आने का साहस नहीं, जिसमें हर हाल में सही बात कहने की दृढ़ता न हो, जो प्रबल विरोधियों के समक्ष सच कहने से कतराता हो, जिसके कार्यकर्ता पहले अपना निजी स्वार्थ साधने के लोभ में डूबे रहते है। वह भी व्यर्थ हिंदुत्व ही है जो केवल सत्ता पाने अथवा पहले सत्ता में आने के लिए हिंदू भावनाओं का उपयोग करने का प्रयास करता हो। यह सब छद्म हिंदुत्व है जो यहां प्रचलित सेक्युलरवाद से हारता रहा है, हारता रहेगा। उपर्युक्त भाव और रूप किसी दल या नेता की विशेषताएं नहीं हैं। यह विभिन्न संगठनों और विभिन्न नेताओं-कार्यकर्ताओं की विशेषताएं हैं। यह अपने स्वभाव से ही इतना दुर्बल है कि शिकायतें करने और दूसरों पर निर्भर रहने के सिवा कुछ नहीं कर सकता, इसीलिए छद्म हिंदुत्व, शिकायती हिंदुत्व और हिंदू राजनीति के अभाव में वस्तुत: कोई भेद नहीं है। अत: इस गंभीर सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए कि जिस तरह मुस्लिम राजनीति एक स्थापित शक्ति है, उसी तरह किसी हिंदू राजनीति का अस्तित्व ही नहीं है। हिंदू भावनाओं वाले कुछ नेता-कार्यकर्ता अनेक दलों में हैं, पर हिंदू भावना एक बात है और हिंदू राजनीति को स्वर देना बिलकुल दूसरी बात।
बाजारवाद की अंधी दौड़ ने समाज-जीवन के हर क्षेत्र को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, खासकर, पत्रकारिता सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पत्रकारिता ने जन-जागरण में अहम भूमिका निभाई थी लेकिन आज यह जनसरोकारों की बजाय पूंजी व सत्ता का उपक्रम बनकर रह गई है। मीडिया दिन-प्रतिदिन जनता से दूर हो रही है। यह चिंता का विषय है। आज पूंजीवादी मीडिया के बरक्स वैकल्पिक मीडिया की जरूरत रेखांकित हो रही है, जो दबावों और प्रभावों से मुक्त हो। विचार पंचायत इसी दिशा में एक सक्रिय पहल है।
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