सोमवार, 27 दिसंबर 2010

राजनीति का अंतरराष्ट्रीय लीकेज

एक चीज है विकीलीक्स। आजकल बड़ा जोर से लीक हो रहेला है। बोलने को तो विकीलीक्स एक इंटरनेट साइट है, पर वास्तव में वो दुनिया का राजनीति का घड़ा है जो चारों बाजू से लीक हो रहेला है।
दुनिया में दो किसिम का देश माना जाता है - एक विकसित और दूसरा विकासशील। विकासशील देश का लोग यह माना करता था कि विकसित देश का कंस्ट्रक्शन मजबूत होता है। उसका सीमेंट में कोई मिलावट नहीं होता। उसका दूध में पानी नहीं होता, गरम मसाला में घोड़ा का लीद नहीं होता। लेकिन, इधर विकीलीक्स ने लीक करना चालू किया तो उधर पता चला कि विकसित देश का छलनी में पन बहोत छेद है। वो पन कम लीक नहीं होता है। आजकल तो विकसित देश का सिरफ छत ईच नहीं, तहखाना पन लीक हो रहेला है।
बड़ा लोग बुद्धि चतुर होता है। आम लोग, बड़ा लोग का बुद्धि चातुर्य से इतना प्रभावित हो जाता कि वो बड़ा लोग का बायोलॉजी भूल जाता है। भूल जाता है कि बड़ा लोग पन छोटा लोग का माफिक खाता है। पीता है। और टॉयलेट पन जाता है। बड़ा लोग जो कुछ करता है, बड़ा लेवल पर करता है। विकीलीक्स ने बताया है कि बड़ा लोग का टॉयलेट कितना बड़ा लेवल पर लीक होता है।
दुनिया में कोई ऐसा नहीं है जो गलती नहीं करता। विकीलीक्स ने पन किया। उसने लीक करके बताया कि हिंदुस्तान में न तो अपना शत्रु से निपटने का शक्ति है, न इच्छाशक्ति। ये बात लीक करने का क्या जरूरत था? ये बात तो हिंदुस्तान का लोग को तबसे पता है, जब ये देश का ऊपर पहला हमला हुआ था। मुट्ठी भर लोग आया और ये मुलुक का ऊपर छा गया। एक हमला सफल हुआ तो फिर तो लाइन लग गया। ये सब इतिहास में साफ-साफ लिखेला है। इसको बता कर विकीलीक्स ने बस अपना टाइम ईच खराब किया है। वैसे इतिहास में जो लोग हिंदुस्तान पर हावी हुआ, वो लोग का असलियत अब विकीलीक्स लीक कर रहा है। ये लीक बताता है कि हारने वाला और जीतने वाला, दोनों का बुनियादी राजनीति में कोई फरक नहीं होता। सब एक जैसा ईच लीक करता है।
राजनीति में न कोई परमानेंट दोस्त होता है, न कोई परमानेंट दुश्मन। सब परमानेंट धोखा देने वाला होता है। इस कारण जो राजनीति में होता है उसका मन में हमेशा यह तनाव बना रहता है कि पता नहीं कौन कब मेरे को धोखा दे देंगा। दूसरा देवे उसके पहले मैं ईच उसको धोखा दे देवे तो अच्छा रहेंगा। पहले धोखा देना - इसी को राजनीति बोलता है। आपने देखा होएंगा कि राजनेता लोग का चेहरा कितना सपाट होता है। उसका कारण ये है कि वो नहीं चाहता कि कोई ये समझ जावे कि अब वो किसको क्या धोखा देने वाला है। किसी राजनेता का चेहरा देख कर आप कभी ये पता नहीं लगा सकता कि उसका मन में क्या चल रहा है। उसका चेहरा पर जो भाव होता है, जरूरी नहीं कि मन में वो ईच विचार होवे। अकसर जब नेता का चेहरा पर करुणा दिख रहा होता है, वो मन में कमीशन काट रहा होता है। नेता लोग से बड़ा दलाल दुनिया में कोई नहीं होता। जो नीति बेच कर खा जाए, उससे बड़ा दलाल कोई हो पन कैसे सकता है!
विकीलीक्स ने दिखा दिया है कि नेता का रंग चाहे कैसा पन होवे - गोरा , काला या भूरा , राजनीति का रंग हमेशा काला ईच होता है। विकीलीक्स ने बता दिया है कि जब दो नेता गला मिलता है , तो वास्तव में वो किसी तीसरा का गला काटने की योजना बना रहा होता है। लेकिन , गला मिलने वाला को भी एक - दूसरा पर भरोसा नहीं होता। गला मिलते - मिलते वो एक दूसरा का गला काटने का योजना पन बनाता रहता है। विकीलीक्स राजनीति से नीति का लीक होने का कहानी है। ईमानदारी लीक होने का कहानी है। विश्वसनीयता लीक होने का कहानी है। राजनीति अब इतना खतरनाक हो गया है कि अब उस पर भरोसा करने का सोचने में पन डर लगता है। ये ईच विकीलीक्स का सा र है।

रविवार, 26 दिसंबर 2010

राजनीति मार्केटिंग मैनेजमेण्ट के कुछ खास सिद्धान्त...


मार्केटिंग मैनेजमेण्ट के कुछ खास सिद्धान्त होते हैं, जिनके द्वारा जब किसी प्रोडक्ट की लॉंचिंग की जाती है तब उन्हें आजमाया जाता है। ऐसा ही एक प्रोडक्ट भारत की आम जनता के माथे पर थोपने की लगभग सफ़ल कोशिश हुई है। मार्केटिंग के बड़े-बड़े गुरुओं और दिग्विजय सिंह जैसे घाघ और चतुर नेताओं की देखरेख में इस प्रोडक्ट यानी राहुल गाँधी की मार्केटिंग की गई है, और की जा रही है। जब मार्केट में प्रोडक्ट उतारा जा रहा हो, (तथा उसकी गुणवत्ता पर खुद बनाने वाले को ही शक हो) तब मार्केटिंग और भी आक्रामक तरीके से की जाती है, बड़ी लागत में पैसा, श्रम और मानव संसाधन लगाया जाता है, ताकि घटिया से घटिया प्रोडक्ट भी, कम से कम लॉंचिंग के साथ कुछ समय के लिये मार्केट में जम जाये। (मार्केटिंग की इस रणनीति का एक उदाहरण हम “माय नेम इज़ खान” फ़िल्म के पहले भी देख चुके हैं, जिसके द्वारा एक घटिया फ़िल्म को शुरुआती तीन दिनों की ओपनिंग अच्छी मिली)। सरल भाषा में इसे कहें तो “बाज़ार में माहौल बनाना”, उस प्रोडक्ट के प्रति इतनी उत्सुकता पैदा कर देना कि ग्राहक के मन में उस प्रोडक्ट के प्रति लालच का भाव पैदा हो जाये। ग्राहक के चारों ओर ऐसा वातावरण तैयार करना कि उसे लगने लगे कि यदि मैंने यह प्रोडक्ट नहीं खरीदा तो मेरा जीवन बेकार है। हिन्दुस्तान लीवर हो या पेप्सी-कोक सभी बड़ी कम्पनियाँ इसी मार्केटिंग के फ़ण्डे को अपने प्रोडक्ट लॉंच करते समय अपनाती हैं। ग्राहक सदा से मूर्ख बनता रहा है और बनता रहेगा, ऐसा ही कुछ राहुल गाँधी के मामले में भी होने वाला है।

राहुल बाबा को देश का भविष्य बताया जा रहा है, राहुल बाबा युवाओं की आशाओं का एकमात्र केन्द्र हैं, राहुल बाबा देश की तकदीर बदल देंगे, राहुल बाबा यूं हैं, राहुल बाबा त्यूं हैं… हमारे मानसिक कंगाल इलेक्ट्रानिक मीडिया का कहना है कि राहुल बाबा जब भी प्रधानमंत्री बनेंगे (या अपने माता जी की तरह न भी बनें तब भी) देश में रामराज्य आ जायेगा, अब रामराज्य का तो पता नहीं, रोम-राज्य अवश्य आ चुका है (उदाहरण – उड़ीसा के कन्धमाल में यूरोपीय यूनियन के चर्च प्रतिनिधियों का दौरा)।

जब से मनमोहन सिंह दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं और राहुल बाबा ने अपनी माँ के श्रीचरणों का अनुसरण करते हुए मंत्री पद का त्याग किया है तभी से कांग्रेस के मीडिया मैनेजरों और “धृतराष्ट्र और दुर्योधन के मिलेजुले रूप” टाइप के मीडिया ने मिलकर राहुल बाबा की ऐसी छवि निर्माण करने का “नकली अभियान” चलाया है जिसमें जनता स्वतः बहती चली जा रही है। दुर्भाग्य यह है कि जैसे-जैसे राहुल की कथित लोकप्रियता बढ़ रही है, महंगाई भी उससे दोगुनी रफ़्तार से ऊपर की ओर जा रही है, गरीबी भी बढ़ रही है, बेरोज़गारी, कुपोषण, स्विस बैंकों में पैसा, काला धन, किसानों की आत्महत्या… सब कुछ बढ़ रहा है, ऐसे महान हैं हमारे राहुल बाबा उर्फ़ “युवराज” जो आज नहीं तो कल हमारी छाती पर बोझ बनकर ही रहेंगे, चाहे कुछ भी कर लो।

मजे की बात ये है कि राहुल बाबा सिर्फ़ युवाओं से मिलते हैं, और वह भी किसी विश्वविद्यालय के कैम्पस में, जहाँ लड़कियाँ उन्हें देख-देखकर, छू-छूकर हाय, उह, आउच, वाओ आदि चीखती हैं, और राहुल बाबा (बकौल सुब्रह्मण्यम स्वामी – राहुल खुद किसी विश्वविद्यालय से पढ़ाई अधूरी छोड़कर भागे हैं और जिनकी शिक्षा-दीक्षा का रिकॉर्ड अभी संदेह के घेरे में है) किसी बड़े से सभागार में तमाम पढे-लिखे और उच्च समझ वाले प्रोफ़ेसरों(?) की क्लास लेते हैं। खुद को विवेकानन्द का अवतार समझते हुए वे युवाओं को देशहित की बात बताते हैं, और देशहित से उनका मतलब होता है NSUI से जुड़ना। जनसेवा या समाजसेवा (या जो कुछ भी वे कर रहे हैं) का मतलब उनके लिये कॉलेजों में जाकर हमारे टैक्स के पैसों पर पिकनिक मनाना भर है। किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर आज तक राहुल बाबा ने कोई स्पष्ट राय नहीं रखी है, उनके सामान्य ज्ञान की पोल तो सरेआम दो-चार बार खुल चुकी है, शायद इसीलिये वे चलते-चलते हवाई बातें करते हैं। वस्तुओं की कीमतों में आग लगी हो, तेलंगाना सुलग रहा हो, पर्यावरण के मुद्दे पर पचौरी चूना लगाये जा रहे हों, मंदी में लाखों नौकरियाँ जा रही हों, चीन हमारी इंच-इंच ज़मीन हड़पता जा रहा हो, उनके चहेते उमर अब्दुल्ला के शासन में थाने में रजनीश की हत्या कर दी गई हो… ऐसे हजारों मुद्दे हैं जिन पर कोई ठोस बयान, कोई कदम उठाना, अपनी मम्मी या मनमोहन अंकल से कहकर किसी नीति में बदलाव करना तो दूर रहा… “राजकुमार” फ़ोटो सेशन के लिये मिट्टी की तगारी उठाये मुस्करा रहे हैं, कैम्पसों में जाकर कांग्रेस का प्रचार कर रहे हैं, विदर्भ में किसान भले मर रहे हों, ये साहब दलित की झोंपड़ी में नौटंकी जारी रखे हुए हैं… और मीडिया उन्हें ऐसे “फ़ॉलो” कर रहा है मानो साक्षात महात्मा गाँधी स्वर्ग (या नर्क) से उतरकर भारत का बेड़ा पार लगाने आन खड़े हुए हैं। यदि राहुल को विश्वविद्यालय से इतना ही प्रेम है तो वे तेलंगाना के उस्मानिया विश्वविद्यालय क्यो नहीं जाते? जहाँ रोज-ब-रोज़ छात्र पुलिस द्वारा पीटे जा रहे हैं या फ़िर वे JNU कैम्पस से चलाये जा रहे वामपंथी कुचक्रों का जवाब देने उधर क्यों नहीं जाते? लेकिन राहुल बाबा जायेंगे आजमगढ़ के विश्वविद्यालय में, जहाँ उनके ज्ञान की पोल भी नहीं खुलेगी और वोटों की खेती भी लहलहायेगी। अपने पहले 5 साल के सांसद कार्यकाल में लोकसभा में सिर्फ़ एक बार मुँह खोलने वाले राजकुमार, देश की समस्याओं को कैसे और कितना समझेंगे?

कहा जाता है कि राहुल बाबा युवाओं से संवाद स्थापित कर रहे हैं? अच्छा? संवाद स्थापित करके अब तक उन्होंने युवाओं की कितनी समस्याओं को सुलझाया है? या प्रधानमंत्री बनने के बाद ही कौन सा गज़ब ढाने वाले हैं? जब उनके पिताजी कहते थे कि दिल्ली से चला हुआ एक रुपया गरीबों तक आते-आते पन्द्रह पैसा रह जाता है, तो गरीब सोचता था कि ये “सुदर्शन व्यक्ति” हमारे लिये कुछ करेंगे, लेकिन दूसरे सुदर्शन युवराज तो अब एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि गरीबों तक आते-आते सिर्फ़ पाँच पैसा रह जाता है। यही बात तो जनता जानना चाहती है, कि राहुल बाबा ये बतायें कि 15 पैसे से 5 पैसे बचने तक उन्होंने क्या किया है, कितने भ्रष्टाचारियों को बेनकाब किया है? भ्रष्ट जज दिनाकरण के महाभियोग प्रस्ताव पर एक भी कांग्रेसी सांसद हस्ताक्षर नहीं करता, लेकिन राहुल बाबा ने कभी इस बारे में एक शब्द भी कहा? “नरेगा” का ढोल पीटते नहीं थकते, लेकिन क्या राजकुमार को यह पता भी है कि अरबों का घालमेल और भ्रष्टाचार इसमें चल रहा है? हाल के पंचायत चुनाव में अकेले मध्यप्रदेश में ही सरपंच का चुनाव लड़ने के लिये ग्रामीण दबंगों ने 1 करोड़ रुपये तक खर्च किये हैं (और ये हाल तब हैं जब मप्र में भाजपा की सरकार है, सोचिये कांग्रेसी राज्यों में “नरेगा” कितना कमाता होगा…), क्योंकि उन्हें पता है कि अगले पाँच साल में “नरेगा” उन्हें मालामाल कर देगा… कभी युवराज के मुँह से इस बारे में भी सुना नहीं गया। अक्सर कांग्रेसी हलकों में एक सवाल पूछा जाता है कि मुम्बई हमले के समय ठाकरे परिवार क्या कर रहा था, आप खुद ही देख लीजिये कि राहुल बाबा भी उस समय एक फ़ार्म हाउस पर पार्टी में व्यस्त थे… और वहाँ से देर सुबह लौटे थे… जबकि दिल्ली के सत्ता गलियारे में रात दस बजे ही हड़कम्प मच चुका था, लेकिन पार्टी जरूरी थी… उसे कैसे छोड़ा जा सकता था।

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

नेहरू -गाँधी परिवार का सच (?)

आजकल जबसे "बबुआ" राहुल गाँधी ने राजनीति में आकर अपने बयान देना शुरू कर दिया है, तब से "नेहरू राजवंश" नामक शब्द बार-बार आ रहा है । नेहरू राजवंश अर्थात Nehru Dynasty... इस सम्बन्ध में अंग्रेजी में विभिन्न साईटों और ग्रुप्स में बहुत चर्चा हुई है....बहुत दिनों से सोच रहा था कि इसका हिन्दी में अनुवाद करूँ या नहीं, गूगल बाबा पर भी खोजा, लेकिन इसका हिन्दी अनुवाद कहीं नहीं मिला, इसलिये फ़िर सोचा कि हिन्दी के पाठकों को इन महत्वपूर्ण सूचनाओं से महरूम क्यों रखा जाये. यह जानकारियाँ यहाँ, यहाँ तथा और भी कई जगहों पर उपलब्ध हैं मुख्य समस्या थी कि इसे कैसे संयोजित करूँ, क्योंकि सामग्री बहुत ज्यादा है और टुकडों-टुकडों में है, फ़िर भी मैने कोशिश की है इसका सही अनुवाद करने की और उसे तारतम्यता के साथ पठनीय बनाने की...जाहिर है कि यह सारी सामग्री अनुवाद भर है, इसमें मेरा सिर्फ़ यही योगदान है... हालांकि मैने लगभग सभी सन्दर्भों (references) का उल्लेख करने की कोशिश की है, ताकि लोग इसे वहाँ जाकर अंग्रेजी में पढ सकें, लेकिन हिन्दी में पढने का मजा कुछ और ही है... बाकी सब पाठकों की मर्जी...हजारों-हजार पाठकों ने इसे अंग्रेजी में पढ ही रखा होगा, लेकिन जो नहीं पढ़ पाये हैं और वह भी हिन्दी में, तो उनके लिये यह पेश है...


"नेहरू-गाँधी राजवंश (?) की असलियत"...इसको पढने से हमें यह समझ में आता है कि कैसे सत्ता शिखरों पर सडाँध फ़ैली हुई है और इतिहास को कैसे तोडा-मरोडा जा सकता है, कैसे आम जनता को सत्य से वंचित रखा जा सकता है । हम इतिहास के बारे में उतना ही जानते हैं जितना कि वह हमें सत्ताधीशों द्वारा बताया जाता है, समझाया जाता है (बल्कि कहना चाहिये पीढी-दर-पीढी गले उतारा जाता है) । फ़िर एक समय आता है जब हम उसे ही सच समझने लगते हैं क्योंकि वाद-विवाद की कोई गुंजाईश ही नहीं छोडी जाती । हमारे वामपंथी मित्र इस मामले में बडे़ पहुँचे हुए उस्ताद हैं, यह उनसे सीखना चाहिये कि कैसे किताबों में फ़ेरबदल करके अपनी विचारधारा को कच्चे दिमागों पर थोपा जाये, कैसे जेएनयू और आईसीएचआर जैसी संस्थाओं पर कब्जा करके वहाँ फ़र्जी विद्वान भरे जायें और अपना मनचाहा इतिहास लिखवाया जाये..कैसे मीडिया में अपने आदमी भरे जायें और हिन्दुत्व, भारत, भारतीय संस्कृति को गरियाया जाये...ताकि लोगों को असली और सच्ची बात कभी पता ही ना चले... हम और आप तो इस खेल में कहीं भी नहीं हैं, एक पुर्जे मात्र हैं जिसकी कोई अहमियत नहीं (सिवाय एक ब्लोग लिखने और भूल जाने के)...तो किस्सा-ए-गाँधी परिवार शुरु होता है साहेबान...शुरुआत होती है "गंगाधर" (गंगाधर नेहरू नहीं), यानी मोतीलाल नेहरू के पिता से । नेहरू उपनाम बाद में मोतीलाल ने खुद लगा लिया था, जिसका शाब्दिक अर्थ था "नहर वाले", वरना तो उनका नाम होना चाहिये था "मोतीलाल धर", लेकिन जैसा कि इस खानदान की नाम बदलने की आदत थी उसी के मुताबिक उन्होंने यह किया । रॉबर्ट हार्डी एन्ड्रूज की किताब "ए लैम्प फ़ॉर इंडिया - द स्टोरी ऑफ़ मदाम पंडित" में उस तथाकथित गंगाधर का चित्र छपा है, जिसके अनुसार गंगाधर असल में एक सुन्नी मुसलमान था, जिसका असली नाम गयासुद्दीन गाजी था. लोग सोचेंगे कि यह खोज कैसे हुई ?

दरअसल नेहरू ने खुद की आत्मकथा में एक जगह लिखा था कि उनके दादा अर्थात मोतीलाल के पिता गंगा धर थे, ठीक वैसा ही जवाहर की बहन कृष्णा ने भी एक जगह लिखा है कि उनके दादाजी मुगल सल्तनत (बहादुरशाह जफ़र के समय) में नगर कोतवाल थे. अब इतिहासकारों ने खोजबीन की तो पाया कि बहादुरशाह जफ़र के समय कोई भी हिन्दू इतनी महत्वपूर्ण ओहदे पर नहीं था..और खोजबीन पर पता चला कि उस वक्त के दो नायब कोतवाल हिन्दू थे नाम थे भाऊ सिंह और काशीनाथ, जो कि लाहौरी गेट दिल्ली में तैनात थे, लेकिन किसी गंगा धर नाम के व्यक्ति का कोई रिकॉर्ड नहीं मिला (मेहदी हुसैन की पुस्तक : बहादुरशाह जफ़र और १८५७ का गदर, १९८७ की आवृत्ति), रिकॉर्ड मिलता भी कैसे, क्योंकि गंगा धर नाम तो बाद में अंग्रेजों के कहर से डर कर बदला गया था, असली नाम तो था "गयासुद्दीन गाजी" । जब अंग्रेजों ने दिल्ली को लगभग जीत लिया था,तब मुगलों और मुसलमानों के दोबारा विद्रोह के डर से उन्होंने दिल्ली के सारे हिन्दुओं और मुसलमानों को शहर से बाहर करके तम्बुओं में ठहरा दिया था (जैसे कि आज कश्मीरी पंडित रह रहे हैं), अंग्रेज वह गलती नहीं दोहराना चाहते थे, जो हिन्दू राजाओं (पृथ्वीराज चौहान ने) ने मुसलमान आक्रांताओं को जीवित छोडकर की थी, इसलिये उन्होंने चुन-चुन कर मुसलमानों को मारना शुरु किया, लेकिन कुछ मुसलमान दिल्ली से भागकर पास के इलाकों मे चले गये थे । उसी समय यह परिवार भी आगरा की तरफ़ कूच कर गया...हमने यह कैसे जाना ? नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आगरा जाते समय उनके दादा गंगा धर को अंग्रेजों ने रोक कर पूछताछ की थी, लेकिन तब गंगा धर ने उनसे कहा था कि वे मुसलमान नहीं हैं, बल्कि कश्मीरी पंडित हैं और अंग्रेजों ने उन्हें आगरा जाने दिया... बाकी तो इतिहास है ही । यह "धर" उपनाम कश्मीरी पंडितों में आमतौर पाया जाता है, और इसी का अपभ्रंश होते-होते और धर्मान्तरण होते-होते यह "दर" या "डार" हो गया जो कि कश्मीर के अविभाजित हिस्से में आमतौर पाया जाने वाला नाम है । लेकिन मोतीलाल ने नेहरू नाम चुना ताकि यह पूरी तरह से हिन्दू सा लगे । इतने पीछे से शुरुआत करने का मकसद सिर्फ़ यही है कि हमें पता चले कि "खानदानी" लोग क्या होते हैं । कहा जाता है कि आदमी और घोडे़ को उसकी नस्ल से पहचानना चाहिये, प्रत्येक व्यक्ति और घोडा अपनी नस्लीय विशेषताओं के हिसाब से ही व्यवहार करता है, संस्कार उसमें थोडा सा बदलाव ला सकते हैं, लेकिन उसका मूल स्वभाव आसानी से बदलता नहीं है.... फ़िलहाल गाँधी-नेहरू परिवार पर फ़ोकस...


अपनी पुस्तक "द नेहरू डायनेस्टी" में लेखक के.एन.राव (यहाँ उपलब्ध है) लिखते हैं....ऐसा माना जाता है कि जवाहरलाल, मोतीलाल नेहरू के पुत्र थे और मोतीलाल के पिता का नाम था गंगाधर । यह तो हम जानते ही हैं कि जवाहरलाल की एक पुत्री थी इन्दिरा प्रियदर्शिनी नेहरू । कमला नेहरू उनकी माता का नाम था, जिनकी मृत्यु स्विटजरलैण्ड में टीबी से हुई थी । कमला शुरु से ही इन्दिरा के फ़िरोज से विवाह के खिलाफ़ थीं... क्यों ? यह हमें नहीं बताया जाता...लेकिन यह फ़िरोज गाँधी कौन थे ? फ़िरोज उस व्यापारी के बेटे थे, जो "आनन्द भवन" में घरेलू सामान और शराब पहुँचाने का काम करता था...नाम... बताता हूँ.... पहले आनन्द भवन के बारे में थोडा सा... आनन्द भवन का असली नाम था "इशरत मंजिल" और उसके मालिक थे मुबारक अली... मोतीलाल नेहरू पहले इन्हीं मुबारक अली के यहाँ काम करते थे...खैर...हममें से सभी जानते हैं कि राजीव गाँधी के नाना का नाम था जवाहरलाल नेहरू, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के नाना के साथ ही दादा भी तो होते हैं... और अधिकतर परिवारों में दादा और पिता का नाम ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, बजाय नाना या मामा के... तो फ़िर राजीव गाँधी के दादाजी का नाम क्या था.... किसी को मालूम है ? नहीं ना... ऐसा इसलिये है, क्योंकि राजीव गाँधी के दादा थे नवाब खान, एक मुस्लिम व्यापारी जो आनन्द भवन में सामान सप्लाय करता था और जिसका मूल निवास था जूनागढ गुजरात में... नवाब खान ने एक पारसी महिला से शादी की और उसे मुस्लिम बनाया... फ़िरोज इसी महिला की सन्तान थे और उनकी माँ का उपनाम था "घांदी" (गाँधी नहीं)... घांदी नाम पारसियों में अक्सर पाया जाता था...विवाह से पहले फ़िरोज गाँधी ना होकर फ़िरोज खान थे और कमला नेहरू के विरोध का असली कारण भी यही था...हमें बताया जाता है कि राजीव गाँधी पहले पारसी थे... यह मात्र एक भ्रम पैदा किया गया है । इन्दिरा गाँधी अकेलेपन और अवसाद का शिकार थीं । शांति निकेतन में पढते वक्त ही रविन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें अनुचित व्यवहार के लिये निकाल बाहर किया था... अब आप खुद ही सोचिये... एक तन्हा जवान लडकी जिसके पिता राजनीति में पूरी तरह से व्यस्त और माँ लगभग मृत्यु शैया पर पडी़ हुई हों... थोडी सी सहानुभूति मात्र से क्यों ना पिघलेगी, और विपरीत लिंग की ओर क्यों ना आकर्षित होगी ? इसी बात का फ़ायदा फ़िरोज खान ने उठाया और इन्दिरा को बहला-फ़ुसलाकर उसका धर्म परिवर्तन करवाकर लन्दन की एक मस्जिद में उससे शादी रचा ली (नाम रखा "मैमूना बेगम") । नेहरू को पता चला तो वे बहुत लाल-पीले हुए, लेकिन अब क्या किया जा सकता था...जब यह खबर मोहनदास करमचन्द गाँधी को मिली तो उन्होंने ताबडतोड नेहरू को बुलाकर समझाया, राजनैतिक छवि की खातिर फ़िरोज को मनाया कि वह अपना नाम गाँधी रख ले.. यह एक आसान काम था कि एक शपथ पत्र के जरिये, बजाय धर्म बदलने के सिर्फ़ नाम बदला जाये... तो फ़िरोज खान (घांदी) बन गये फ़िरोज गाँधी । और विडम्बना यह है कि सत्य-सत्य का जाप करने वाले और "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" लिखने वाले गाँधी ने इस बात का उल्लेख आज तक कहीं नहीं किया, और वे महात्मा भी कहलाये...खैर... उन दोनों (फ़िरोज और इन्दिरा) को भारत बुलाकर जनता के सामने दिखावे के लिये एक बार पुनः वैदिक रीति से उनका विवाह करवाया गया, ताकि उनके खानदान की ऊँची नाक (?) का भ्रम बना रहे । इस बारे में नेहरू के सेक्रेटरी एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक "रेमेनिसेन्सेस ऑफ़ थे नेहरू एज" (पृष्ट ९४ पैरा २) (अब भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित) में लिखते हैं कि "पता नहीं क्यों नेहरू ने सन १९४२ में एक अन्तर्जातीय और अन्तर्धार्मिक विवाह को वैदिक रीतिरिवाजों से किये जाने को अनुमति दी, जबकि उस समय यह अवैधानिक था, कानूनी रूप से उसे "सिविल मैरिज" होना चाहिये था" । यह तो एक स्थापित तथ्य है कि राजीव गाँधी के जन्म के कुछ समय बाद इन्दिरा और फ़िरोज अलग हो गये थे, हालाँकि तलाक नहीं हुआ था । फ़िरोज गाँधी अक्सर नेहरू परिवार को पैसे माँगते हुए परेशान किया करते थे, और नेहरू की राजनैतिक गतिविधियों में हस्तक्षेप तक करने लगे थे । तंग आकर नेहरू ने फ़िरोज का "तीन मूर्ति भवन" मे आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । मथाई लिखते हैं फ़िरोज की मृत्यु से नेहरू और इन्दिरा को बडी़ राहत मिली थी । १९६० में फ़िरोज गाँधी की मृत्यु भी रहस्यमय हालात में हुई थी, जबकि वह दूसरी शादी रचाने की योजना बना चुके थे । अपुष्ट सूत्रों, कुछ खोजी पत्रकारों और इन्दिरा गाँधी के फ़िरोज से अलगाव के कारण यह तथ्य भी स्थापित हुआ कि श्रीमती इन्दिरा गाँधी (या श्रीमती फ़िरोज खान) का दूसरा बेटा अर्थात संजय गाँधी, फ़िरोज की सन्तान नहीं था, संजय गाँधी एक और मुस्लिम मोहम्मद यूनुस का बेटा था । संजय गाँधी का असली नाम दरअसल संजीव गाँधी था, अपने बडे भाई राजीव गाँधी से मिलता जुलता । लेकिन संजय नाम रखने की नौबत इसलिये आई क्योंकि उसे लन्दन पुलिस ने इंग्लैण्ड में कार चोरी के आरोप में पकड़ लिया था और उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया था । ब्रिटेन में तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त कृष्ण मेनन ने तब मदद करके संजीव गाँधी का नाम बदलकर नया पासपोर्ट संजय गाँधी के नाम से बनवाया था (इन्हीं कृष्ण मेनन साहब को भ्रष्टाचार के एक मामले में नेहरू और इन्दिरा ने बचाया था) । अब संयोग पर संयोग देखिये... संजय गाँधी का विवाह "मेनका आनन्द" से हुआ... कहाँ... मोहम्मद यूनुस के घर पर (है ना आश्चर्य की बात)... मोहम्मद यूनुस की पुस्तक "पर्सन्स, पैशन्स एण्ड पोलिटिक्स" में बालक संजय का इस्लामी रीतिरिवाजों के मुताबिक खतना बताया गया है, हालांकि उसे "फ़िमोसिस" नामक बीमारी के कारण किया गया कृत्य बताया गया है, ताकि हम लोग (आम जनता) गाफ़िल रहें.... मेनका जो कि एक सिख लडकी थी, संजय की रंगरेलियों की वजह से गर्भवती हो गईं थीं और फ़िर मेनका के पिता कर्नल आनन्द ने संजय को जान से मारने की धमकी दी थी, फ़िर उनकी शादी हुई और मेनका का नाम बदलकर "मानेका" किया गया, क्योंकि इन्दिरा गाँधी को "मेनका" नाम पसन्द नहीं था (यह इन्द्रसभा की नृत्यांगना टाईप का नाम लगता था), पसन्द तो मेनका, मोहम्मद यूनुस को भी नहीं थी क्योंकि उन्होंने एक मुस्लिम लडकी संजय के लिये देख रखी थी । फ़िर भी मेनका कोई साधारण लडकी नहीं थीं, क्योंकि उस जमाने में उन्होंने बॉम्बे डाईंग के लिये सिर्फ़ एक तौलिये में विज्ञापन किया था । आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि संजय गाँधी अपनी माँ को ब्लैकमेल करते थे और जिसके कारण उनके सभी बुरे कृत्यों पर इन्दिरा ने हमेशा परदा डाला और उसे अपनी मनमानी करने की छूट दी । ऐसा प्रतीत होता है कि शायद संजय गाँधी को उसके असली पिता का नाम मालूम हो गया था और यही इन्दिरा की कमजोर नस थी, वरना क्या कारण था कि संजय के विशेष नसबन्दी अभियान (जिसका मुसलमानों ने भारी विरोध किया था) के दौरान उन्होंने चुप्पी साधे रखी, और संजय की मौत के तत्काल बाद काफ़ी समय तक वे एक चाभियों का गुच्छा खोजती रहीं थी, जबकि मोहम्मद यूनुस संजय की लाश पर दहाडें मार कर रोने वाले एकमात्र बाहरी व्यक्ति थे...। (संजय गाँधी के तीन अन्य मित्र कमलनाथ, अकबर अहमद डम्पी और विद्याचरण शुक्ल, ये चारों उन दिनों "चाण्डाल चौकडी" कहलाते थे... इनकी रंगरेलियों के किस्से तो बहुत मशहूर हो चुके हैं जैसे कि अंबिका सोनी और रुखसाना सुलताना [अभिनेत्री अमृता सिंह की माँ] के साथ इन लोगों की विशेष नजदीकियाँ....)एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक के पृष्ठ २०६ पर लिखते हैं - "१९४८ में वाराणसी से एक सन्यासिन दिल्ली आई जिसका काल्पनिक नाम श्रद्धा माता था । वह संस्कृत की विद्वान थी और कई सांसद उसके व्याख्यान सुनने को बेताब रहते थे । वह भारतीय पुरालेखों और सनातन संस्कृति की अच्छी जानकार थी । नेहरू के पुराने कर्मचारी एस.डी.उपाध्याय ने एक हिन्दी का पत्र नेहरू को सौंपा जिसके कारण नेहरू उस सन्यासिन को एक इंटरव्यू देने को राजी हुए । चूँकि देश तब आजाद हुआ ही था और काम बहुत था, नेहरू ने अधिकतर बार इंटरव्य़ू आधी रात के समय ही दिये । मथाई के शब्दों में - एक रात मैने उसे पीएम हाऊस से निकलते देखा, वह बहुत ही जवान, खूबसूरत और दिलकश थी - । एक बार नेहरू के लखनऊ दौरे के समय श्रध्दामाता उनसे मिली और उपाध्याय जी हमेशा की तरह एक पत्र लेकर नेहरू के पास आये, नेहरू ने भी उसे उत्तर दिया, और अचानक एक दिन श्रद्धा माता गायब हो गईं, किसी के ढूँढे से नहीं मिलीं । नवम्बर १९४९ में बेंगलूर के एक कॉन्वेंट से एक सुदर्शन सा आदमी पत्रों का एक बंडल लेकर आया । उसने कहा कि उत्तर भारत से एक युवती उस कॉन्वेंट में कुछ महीने पहले आई थी और उसने एक बच्चे को जन्म दिया । उस युवती ने अपना नाम पता नहीं बताया और बच्चे के जन्म के तुरन्त बाद ही उस बच्चे को वहाँ छोडकर गायब हो गई थी । उसकी निजी वस्तुओं में हिन्दी में लिखे कुछ पत्र बरामद हुए जो प्रधानमन्त्री द्वारा लिखे गये हैं, पत्रों का वह बंडल उस आदमी ने अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया ।

मथाई लिखते हैं - मैने उस बच्चे और उसकी माँ की खोजबीन की काफ़ी कोशिश की, लेकिन कॉन्वेंट की मुख्य मिस्ट्रेस, जो कि एक विदेशी महिला थी, बहुत कठोर अनुशासन वाली थी और उसने इस मामले में एक शब्द भी किसी से नहीं कहा.....लेकिन मेरी इच्छा थी कि उस बच्चे का पालन-पोषण मैं करुँ और उसे रोमन कैथोलिक संस्कारों में बडा करूँ, चाहे उसे अपने पिता का नाम कभी भी मालूम ना हो.... लेकिन विधाता को यह मंजूर नहीं था.... खैर... हम बात कर रहे थे राजीव गाँधी की...जैसा कि हमें मालूम है राजीव गाँधी ने, तूरिन (इटली) की महिला सानिया माईनो से विवाह करने के लिये अपना तथाकथित पारसी धर्म छोडकर कैथोलिक ईसाई धर्म अपना लिया था । राजीव गाँधी बन गये थे रोबेर्तो और उनके दो बच्चे हुए जिसमें से लडकी का नाम था "बियेन्का" और लडके का "रॉल" । बडी ही चालाकी से भारतीय जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिये राजीव-सोनिया का हिन्दू रीतिरिवाजों से पुनर्विवाह करवाया गया और बच्चों का नाम "बियेन्का" से बदलकर प्रियंका और "रॉल" से बदलकर राहुल कर दिया गया... बेचारी भोली-भाली आम जनता !

प्रधानमन्त्री बनने के बाद राजीव गाँधी ने लन्दन की एक प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में अपने-आप को पारसी की सन्तान बताया था, जबकि पारसियों से उनका कोई लेना-देना ही नहीं था, क्योंकि वे तो एक मुस्लिम की सन्तान थे जिसने नाम बदलकर पारसी उपनाम रख लिया था । हमें बताया गया है कि राजीव गाँधी केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के स्नातक थे, यह अर्धसत्य है... ये तो सच है कि राजीव केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में मेकेनिकल इंजीनियरिंग के छात्र थे, लेकिन उन्हें वहाँ से बिना किसी डिग्री के निकलना पडा था, क्योंकि वे लगातार तीन साल फ़ेल हो गये थे... लगभग यही हाल सानिया माईनो का था...हमें यही बताया गया है कि वे भी केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की स्नातक हैं... जबकि सच्चाई यह है कि सोनिया स्नातक हैं ही नहीं, वे केम्ब्रिज में पढने जरूर गईं थीं लेकिन केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में नहीं । सोनिया गाँधी केम्ब्रिज में अंग्रेजी सीखने का एक कोर्स करने गई थी, ना कि विश्वविद्यालय में (यह बात हाल ही में लोकसभा सचिवालय द्वारा माँगी गई जानकारी के तहत खुद सोनिया गाँधी ने मुहैया कराई है, उन्होंने बडे ही मासूम अन्दाज में कहा कि उन्होंने कब यह दावा किया था कि वे केम्ब्रिज की स्नातक हैं, अर्थात उनके चमचों ने यह बेपर की उडाई थी)। क्रूरता की हद तो यह थी कि राजीव का अन्तिम संस्कार हिन्दू रीतिरिवाजों के तहत किया गया, ना ही पारसी तरीके से ना ही मुस्लिम तरीके से । इसी नेहरू खानदान की भारत की जनता पूजा करती है, एक इटालियन महिला जिसकी एकमात्र योग्यता यह है कि वह इस खानदान की बहू है आज देश की सबसे बडी पार्टी की कर्ताधर्ता है और "रॉल" को भारत का भविष्य बताया जा रहा है । मेनका गाँधी को विपक्षी पार्टियों द्वारा हाथोंहाथ इसीलिये लिया था कि वे नेहरू खानदान की बहू हैं, इसलिये नहीं कि वे कोई समाजसेवी या प्राणियों पर दया रखने वाली हैं....और यदि कोई सानिया माइनो की तुलना मदर टेरेसा या एनीबेसेण्ट से करता है तो उसकी बुद्धि पर तरस खाया जा सकता है और हिन्दुस्तान की बदकिस्मती पर सिर धुनना ही होगा...

यह अनुवाद सिर्फ़ इसीलिये किया गया है कि जो बात बरसों पहले से ही अंग्रेजी में उपलब्ध है, उसे हिन्दी में भी अनुवादित भी होना चाहिये.... यह करने के पीछे उद्देश्य किसी का दिल दुखाना नहीं है, ना ही अपने चिठ्ठे की टीआरपी बढाने का है... हाँ यह स्वार्थ जरूर है कि यदि पाठकों को अनुवाद पसन्द आया तो इस क्षेत्र में भी हाथ आजमाया जाये और इस गरीब की झोली में थोडा़ सा नावां-पत्ता आ गिरे....

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

हिन्दू होने पर गर्व क्यों ?

सन् 1857 की क्रांति में पराधीनता से मुक्त होने के असफल प्रयास से समाज के मन में ग्लानी का भाव आया। प्रबुद्ध वर्ग में हिन्दुत्व के बारे में हीनता का बोध उत्पन्न हुआ। मुझे गधा कह लो, हिन्दू मत कहो। इस तरह के नकारात्मक भाव की उत्पत्ति हुई थी। इस विषम परिस्थति में स्वामीं विवेकानन्द ने गौरव के भाव को जागृत किया तथा हिन्दू समाज में नये जोश और उत्साह का संचार किया। अपने विस्मृत स्वाभिमान को झकझोरने का कार्य किया। राष्ट्र धर्म एवं संस्कृति की पताका सन् 1893 में शिकागों में सर्वधर्मसम्मेलन में फहराई गई। समूची दुनिया का ध्यान भारतीय संस्कृति की ओर खींचने में सफल हुए। स्वामीजी का कथन है कि ‘‘जब कोई अपने पूर्वजों पर ग्लानी महसूस करें तो समझना चाहिए उसका अंत आ गया है।‘‘ स्वामीजी ने राष्ट्र.धर्म.संस्कृति के प्रति गौरवपूर्ण भाव का जागरण कर हिन्दुत्व को गौरवान्वित किया। इसी बीच सन् 1925 को परम पूजनीय डॉ. साहब के नेतृत्व मार्गदर्शन में ‘‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ‘‘ की स्थापना भी इसी कड़ी में एक चरण था। सन् 2002 में राष्ट्र जागरण का ध्येय वाक्य था, ‘‘गर्व से कहों हम हिन्दू है।‘‘ भारत दुनिया का सबसे प्राचीनतम देश हैं। भारतीय हिन्दू संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीनतम और अद्भुत विज्ञान सम्मत संस्कृति है। अपने लिए गौरव का विषय है कि शाश्वत ज्ञान के रूप में हमारे पास वेद है। वेदों में सृष्टि रचना से लेकर अन्यान्य विषयों का लौकिक और पारलौकिक ज्ञान का भंडार भरा हुआ है। इन वेदों के माध्यम से हम अपनी ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय विरासत का बोध सहज ही प्राप्त कर सकते हैं। दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद हमारे पास है। यह इस बात का प्रमाण है कि हमारी संस्कृति विश्व का प्राण है। हिन्दू धर्म के बाद अन्य धर्म प्रकाश में आये। ध्यान से देखने समझने पर ज्ञात होता है कि मूल अवधारना वेदो से ही प्राप्त करके अन्य धर्मग्रन्थों का निर्माण हुआ। अन्य धर्म ग्रन्थो का उद्गम स्थल वेद ही है। यह प्रतीत होता है कि शाश्वत.सनातन ज्ञान के रूप में परमात्मा ने हमें ज्ञान स्वरूप वेद प्रदान किये है। अपने ही पूर्वजों द्वारा सत्य की खोज एवं उसका प्रचार.प्रसार सारी दुनिया में किया है। सारी दुनिया को कपड़े पहनना और मानवीय मूल्यों का ज्ञान हिन्दुस्तान ने ही सिखाया है। सम्पूर्ण विश्व को अपना मानने का भाव ‘‘कृणवन्तो विश्वमार्यम्‘‘ हमारी संस्कृति ने प्रदान किया है। विश्व पटल पर जो भी दिखाई देता है वह सब कुछ वेदों की कृपा से ही प्राप्त किया हुआ है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं किया जाना चाहिए। सम्पूर्ण विश्व को चरित्र की शिक्षा सीखने का आव्हान हमने किया है।

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‘‘एतद्देश्य प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं.स्वं चरित्रं शिक्षेस् पृथिव्यां सर्व मानवाः‘‘
समुचा वसुंधरा परिवार हमारा है। यह उदात्त भाव हमारे हिन्दू समाज ने विश्व को दिया है। हिन्दू धर्म पूर्णतः वैज्ञानिक और आध्यात्मिक सूत्रों से गूँथा हुआ है। एक.एक सूत्र अद्भुत् विलक्षणता लिए हुए है। इनका साक्षात्कार व्यक्ति को लघु से महान् और महान से महानतम बनने की प्रेरणा प्रदान करता है। सच्चे अर्थो में मानव जाति की कर्तव्य संहिता है, हिन्दू धर्म। समूची दुनिया की भौगोलिक और सांस्कृतिक रचना को देखने पर ज्ञात होता है कि आज भी विश्व में सर्वत्र हिन्दुत्व के अवशेष फैले हुए है, तथा हिन्दुत्व के प्रति श्रद्धा भाव है।

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आपको विदित है डॉ. वाकणकर का अमेरिका में रेड इंडियनों के साथ यज्ञ करने का प्रसंग? डॉ. रघुवीर का साइबेरिया का यात्रा प्रसंग? गंगाजल मांगने का उदाहरण? सिकंदर के गुरू का भारत से गीता, गंगाजल और एक गुरु लाने के लिए कहना? विश्व में अपने प्रभाव का प्रमाण है।

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हमारे धर्म ने समूची मानवजाति के लिए चार पुरुषार्थों क्रमशः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का विवरण प्रस्तुत किया है। धर्म और मोक्ष के बीच विवेकपूर्वक अर्जन तथा उपभोग करने की दृष्टि प्रदान की है। संसार मंे जो कुछ भी है, वह परमात्मा का है। उसका त्यागपूर्वक उपभोग करने की शिक्षा हमारे धर्म ने ही दी है।
‘‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।‘
तेन त्यक्तेन् भुंजीया मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।‘‘
विश्व के चार प्रतिशत अमेरिका वासी, चालीस प्रतिशत संसाधनों का उपयोग करते है। इसी साम्राज्यवाद के कारण विश्व में चारों ओर अशांति दिखाई पड़ रही है। इस घोर अशांति के जनक भोगवादी संस्कृति के उपासक ही है।

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हमने विश्व को चार आश्रम क्रमशः ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास के रूप में अत्यंत मंगलकारी व्यवस्था का बोध कराया है। इन आश्रमों के अनुरूप जीवन यापन करने से समाज एवं राष्ट्र की सर्वाेपरी सेवा की जा सकती है। समाज रचना का यह सुन्दर स्वरूप अन्य धर्माे में दृष्टिगोचर नहीं होता चूँकि इनकी विस्तृत व्याख्या करना यहाँ पर प्रासंगिक नहीं है। समाज और राष्ट्र को सुव्यवस्थित संचालित करने के लिए गुण, कर्मोे के अनुरूप चार वर्णो में विभाजित किया गया है। वर्णव्यवस्था और समाज रचना अपनी विशेषता है। ‘‘चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं, गुणकर्म विभागशः।‘‘ हम समाज जीवन की सभी विधाओ में श्रेष्ठ थे। यथा विज्ञान, विमान शास्त्र, नौका यान, रसायन शास्त्र, और गणित जैसे सभी विषयों में और व्यापार और वाणिज्य में भी दुनिया में फैले हुए है। झारखण्ड की जनजातियों द्वारा लौह निर्माण की कला को जानना, हमारे लिए अत्यन्त गौरव का विषय है।

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सन् 2011 से युग परिवर्तन की घोषणा परम् पूज्यनीय सरसंघचालक एवं पं. आचार्य श्रीराम शर्मा के द्वारा की गई है। वहीं डॉ. कलाम के अनुसार सन् 2020 में भारत पुनः विश्व गुरु बनेगा। हम पुनः शक्तिशाली बने तथा विश्व का मार्गदर्शन करें।

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

शमशेर: जीवन ही संदेश.............

सहजता अगर मनुष्य का गुण है तो शमशेर बहादुर सिंह का जीवन और काव्य उसका उदाहरण है। न औपचारिकता, न पाखंड। जैसा जीवन, वैसा लेखन। उनके अनुभव का सूत्र पकड में आ जाये तो दुरूह जान पडने वाली कविता भी खुल जाती है। लेकिन वे मानते थे, कला कलेंडर की चीज नहीं। इसलिए अपने अनुभव का निजीपन, जहां तक हो सके, उसे खुलने से रोकते थे। फिर भी सहज थे, सरल नहीं। सरलता तो कभी-कभी नासमझी से भरी होती है। सहजता जीवन का ताप सहकर आती है। कबीर उसे सहज साधना कहते थे। शमशेर को भी साधना से ही सहजता प्राप्त हुई है। अपने प्रिय कवि निराला को याद करते हुए शमशेर ने लिखा था-

भूल कर जब राह- जब-जब राह.. भटका मैं/ तुम्हीं झलके हे महाकवि,/ सघन तम की आंख बन मेरे लिए।

घने अंधेरे में शमशेर के लिए आंख बन निराला इसलिए झलके कि दोनों का जीवन साम्य लिये हुए था। एक जैसा आर्थिक और भावात्मक अभाव। बचपन में मां की मृत्यु, युवाकाल में पत्नी की मृत्यु, अनियमित रोजगार और अकेलापन। देर से ही सही, उन्हें बडे-बडे पुरस्कार भी मिले- साहित्य अकादमी (1977), मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार (1987), कबीर सम्मान (1989)।

शमशेर का जन्म तारीफ सिंह के पुत्र के रूप में 3 जनवरी 1911 को देहरादून में हुआ। मृत्यु 12 मई 1993 को अहमदाबाद में। देहरादून ननिहाल था। अहमदाबाद उनपर शोधकर्ती रजना अरगडे का निवास, जो अब वहीं प्रोफेसर और विदुषी हैं। शमशेर के भाई तेज बहादुर उनसे दो साल छोटे थे। उनकी मां परम देवी दोनों भाइयों को राम-लक्ष्मण की जोडी कहती थीं। शमशेर 8-9 साल के थे जब वे संसार छोड गयीं। लेकिन यह जोडी शमशेर की मृत्यु तक बनी रही।

शमशेर चौबीस वर्ष के थे जब उनकी पत्नी धर्मवती छ: वर्ष के साथ के बाद 1935 में टीबी से दिवंगत हुई। जीवन का यह अभाव कविता में विभाव बनकर हमेशा मौजूद रहा। काल ने जिसे छीन लिया, उसे अपनी कविता में सजीव रखकर शमशेर काल से होड लेते रहे।

युवाकाल में शमशेर वामपंथी विचारधारा और प्रगतिशील साहित्य से प्रभावित हुए। शमशेर का अपना जीवन निम्नमध्यवर्गी का औसत जीवन था। शायद कुछ अधिक निम्न। उन्होंने स्वाधीनता और क्रांति को अपनी निजी चीज की तरह अपनाया। इंद्रिय-सौंदर्य के सबसे संवेदनापूर्ण चित्र देकर भी वे अज्ञेय की तरह सौंदर्यवादी नहीं हैं। उनमें एक ऐसा कडियलपन है जो उनकी विनम्रता को ढुलमुल नहीं बनने देता, साथ ही किसी एक चौखटे में बंधने भी नहीं देता। वे खुद मानते हैं कि इलियट-एजरा पाउंड-उर्दू दरबारी कविता का रुग्ण प्रभाव उनपर है, लेकिन उनका स्वस्थ सौंदर्यबोध इस प्रभाव से ग्रस्त नहीं है। वे सौंदर्य के अनूठे चित्रों से स्त्रष्टा के रूप में हिंदी में सर्वमान्य हैं-

1. मोटी धुली लॉन की दूब,

साफ मखमल-सी कालीन।

ठंडी धुली सुनहली धूप।

2. बादलों के मौन गेरू-पंख, संन्यासी, खुले हैं/ श्याम पथ पर/ स्थिर हुए-से, चल।

शमशेर के राग-विराग गहरे और स्थायी थे। अवसरवादी ढंग से विचारों को अपनाना-छोडना उनका काम नहीं था। अपने मित्र-कवि केदारनाथ अग्रवाल की तरह शमशेर एक तरफ यौवन की उमडती यमुनाएं अनुभव कर सकते थे, दूसरी तरफ लहू भरे गवालियर के बाजार में जुलूस भी देख सकते थे। उनके लिए निजता और सामाजिकता में अलगाव और विरोध नहीं था, बल्कि दोनों एक ही अस्तित्व के दो छोर थे। नाहक ही टूटी हुई, बिखरी हुई उनकी प्रतिनिधि कविता नहीं मानी जाती। उनमें शमशेर ने लिखा है- दोपहर बाद की धूप-छांह में खडी इंतजार की ठेलेगाडियां/ जैसे मेरी पसलियां../ खाली बोरे सूजों से रफू किये जा रहे हैं.. जो/ मेरी आंखों का सूनापन है। इंतजार की ठेलेगाडियां ही मानो पसलियां हैं और खाली बोरे से आंखों का सूनापन। ठहराव, अभाव और व्यर्थता परिवेश में है, जीवन में भी।

ज्यादातर समकालीन कवियों का इतिहास-बोध 20-25 साल या 50-60 साल से पीछे नहीं जाता। अपनी चर्चा के अलावा कुछ और नहीं भाता। लेकिन चिंतन में ही नहीं, सृजन में भी इतिहास का जितना गहरा बोध होता है, कवि उतना ही विशिष्ट और महत्वपूर्ण होता है। साथ ही, अपने समय को ज्यादा गहराई से समझने में सक्षम भी होता है।

शमशेर उन कवियों में थे, जिनके लिए मा‌र्क्सवाद की क्रांतिकारी आस्था और भारत की सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा में विरोध नहीं था। प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे- भोर के नभ को नीले शंख की तरह वही देख सकता है जो भारतीय परंपरा से ओत-प्रोत है। शमशेर सूर्योदय से डरने वालों में नहीं हैं, न सूर्यास्त से कतराने वालों में हैं। वैदिक कवियों की तरह वे प्रकृति की लीला को पूरी तन्मयता से अपनाते हैं-

1. जागरण की चेतना से मैं नहा उट्ठा।

सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता।

2. सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता

केश-तन में झिलमिला कर डूब जाता..

जागरण का सूर्य हो या डूबने का सूर्य, शमशेर दोनों को अपनी पुतलियों में स्नान कराते हैं। उनमें ही यह क्षमता हो सकती थी कि अपने को हिंदी और उर्दू का दोआब कहकर सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में सांप्रदायिकता को निरस्त करें; वे ही रूढिवाद-जातिवाद का उपहास करते हुए कह सकते थे, क्या गुरुजी मनु ऽ जी को ले आयेंगे? हो गये जिनको लाखों जनम गुम हुए। यह सहज बेबाकी इसलिए है कि- मुझे बादशाहत नहीं चाहिए/मगर तू ही कुल मेरी दुनिया है क्यों।

नम्रता और दृढता, फाकामस्ती और आत्मविश्वास से बना शमशेर का कवि-व्यक्तित्व अपनी पूरी गरिमा के साथ हमारे बीच मौजूद है। जन्मशती के मौके पर उनके इन गुणों को पहचानना, याद करना, और हो सके तो अपनाना, केवल श्रद्धांजलि नहीं है, अपना संस्कार भी है।