शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

संचार व्यवस्था और अतंराष्ट्रीय मीडिया

सुभाष धूलिया


अतंराष्ट्रीय मीडिया परिदृश्य को समझने के लिए विश्व राजनीति पर एक निगाह डालना जरूरी हो जाता है। पिछले दो दशकों में दुनिया में कुछ ऐसे परिवर्तन आए हैं जिससे विकास की दिशा और दशा दोनों बदल गए। लेकिन यह कह सकते हैं अब तक कोई ऐसी विश्व व्यवस्था नहीं आ पायी है जिसमें स्थायित्व निहित हो। पिछली सदी की अस्सी-नब्बे के दशक की कुछ घटनाओं ने राजनीतिक, आर्थिक और सूचना संचार की अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं को एक तरह से फिर से पारिभाषित कर दिया जिससे विश्व राजनीति के चरित्र और स्वभाव में बड़े परिवर्तन आए। अस्सी के दशक में विकास के सोवियत समाजवादी मॉडल के चरमराने की प्रकिया शुरु हुई और 1991 में सोवियत संघ का अवसान हुआ। इस घटना को पश्चिमी उदार लोकतंत्र और मुक्त अर्थव्यवस्था के विजय के रूप में देखा गया। इसी दशक में सूचना क्रांति ने भी बेमिसाल ऊंचाइयां हासिल की और इसी के समांतर दुनिया भर में मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर उन्मुख आर्थिक सुधारों की प्रकिया भी शुरु हुई। इस आर्थिक प्रकिया के पूरक के रूप में भूमंडलीकरण ने भी नई गति हासिल की।

इन घटनाओं के उपरांत विश्व में एक नई सूचना और संचार व्यवस्था का भी उदय हुआ। एक रूप से इस व्यवस्था ने विकासशील देशों की उन तमाम दलीलों को ठुकरा दिया जो उन्होंने विश्व में एक नई सूचना और संचार व्यवस्था कायम करने के लिए छठे और सातवें दशक में पेश की थीं और जिन्हें 1980 में यूनेस्को मे मैक्बाइट कमीशन की रिपोर्ट के रूप में एक संगठित अभिव्यक्ति प्रदान की। विकासशील देशों की मांग थी कि विश्व में सूचना और समाचारों के प्रवाह में असंतुलन है और फिर इन पर विकसित देशों की चंद मीडिया संगठनों का नियंत्रण है। इसकी वजह से विकसशील देशों के बारे में नकारात्मक सूचना और समाचार ही छाए रहते हैं जिससे विकासशील देशों की नकारात्मक छवि ही बनती है जबकि विकसित देशों को लेकर सबकुछ सकारात्मक है।
यूनेस्को ने इन तमाम मसलों को संबोधित करने के लिए मैक्बाइट कमीशन का गठन किया और इसने 1980 में 'मैनी वॉइसेज वन वर्ल्ड'( दुनिया एक, स्वर अनेक) शीर्षक से अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें विश्व में सूचना और समाचारों के प्रवाह में असंतुलन को दूर करने के लिए अनेक सिफारिशें की गयी थीं। लेकिन अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों ने इन सिफारिशों को इस आधार पर खारिज कर दिया कि इनमें असंतुलन को दूर करने के नाम पर सरकारी हस्तक्षेप का न्यौता निहित है और इस तरह ये सिफारिशें प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करती हैं। अमेरिका, ब्रिटेन और सिंगापुर तो इस मसले पर यूनेस्को से अलग हो गए और इन देशों के अलग होने से यूनेस्को को मिलने वाली आर्थिक मदद बंद हो गयी जिसकी वजह से यूनेस्को एक तरह से पंगु हो गया।

लेकिन अस्सी-नब्बे दशक की घटनाओं के उपरांत इस तरह की नई विश्व सूचना और संचार व्यवस्था की मांग भी बेमानी हो गयी। इसका सबसे मुख्य कारण तो यही था कि इस मांग को करने वाले सबसे प्रबल स्वर ही शांत हो गए। विकासशील देशों में इस मांग को उठाने वाले अधिकांश देशों ने आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के मॉडल का रास्ता छोड़कर उदार भूमंडलीकरण का रास्ता अपना लिया था। दूसरा प्रमुख कारण यह भी था कि यहां आते-आते सूचना क्रांति एक ऐसी मंजिल तक पहुंच चुकी थी जिसमें दूरसंचार,सेटेलाइट और कम्प्यूटर प्रोद्योगिकी के बल पर एक ऐसे तंत्र का उदय हुआ जिसमें सूचना समाचारों के प्रवाह पर किसी भी तरह का अंकुश लगाना संभव ही नहीं रह गया। विकासशील देश सूचना-समाचारों के जिस एकतरफा प्रवाह की शिकायत करते थे उसका आवेग इस नए दौर अब पहले से कहीं अधिक तेज हो गया और इसे रोक पाना वास्तविक रुप से संभव नहीं रह गया था।

नया परिदृश्य

सूचना क्रांति से निश्चय ही दुनिया एक तरह के वैश्विक गांव में परिवर्तित हो गयी। सूचना -समाचारों और हर तरह के मीडिया उत्पादों का प्रवाह बाधाविहीन होने के उपरांत वैश्विक मीडिया के स्वरूप में भी बड़ा परिवर्तन आया। पहले वैश्विक मीडिया जो विश्व भर में सूचना और समाचारों के प्रवाह का नियंत्रण करता था लेकिन उसका काफी हद तक एक देश के भीतर इसका सीधा नियंत्रण नहीं होता था-यानी नियंत्रण का स्वरूप अप्रत्यक्ष था और ये स्वदेश संगठनों से माध्यम से ही घरेलू बाजार में मीडिया उत्पाद वितरित करते थे। लेकिन आज वैश्विक मीडिया का प्रसार देशों की सीमा के भीतर तक हो चुका है जहां वो प्रत्यक्ष रूप से मीडिया के बाजार में अपनी उपस्थिति दर्ज कर चुके हैं। आज भले ही सूचना साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद से जुड़े सवाल समय-समय पर उठते रहते हों और अनेक परिस्थितियों में इनका प्रतिरोध विभिन्न तरह के कट्टरपंथ के रूप में उभर रहा है( धार्मिक कट्टरपंथ और आतंकवाद के सामाजिक आधार का एक कारण यह भी है) लेकिन फिर भी विभिन्न देशों की सीमाओं के संदर्भ में इन अहसासों का कोई खास प्रतिरोध नहीं है।

मीडिया उत्पादों के वैश्विक प्रवाह के बाधाविहीन बनने के बाद एक नए तरह का सूचना और संचार का परिदृश्य पैदा हुआ है।
समकालीन परिदृश्य में मीडिया उत्पादों और इनके वितरण के माध्यमों में भी बुनियादी परिवर्तन आ रहे हैं। प्रिंट,रेडियो टेलीविजन और मल्टीमीडिया इंटरनेट बहुत सारे मीडिया उत्पाद और व्यापक विकल्प पेश कर रहे हैं। विकसित देशों इस उभरते बाजार में प्रिंट मीडिया पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। विकसित देशों में समाचार पत्रों का सर्कुलेशन घट रहा है और अनेक पुराने और प्रतिष्ठित मीडिया संगठन बंद होकर बाजार से बाहर हो गए हैं। नए बाजार में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए लगभग हर समाचार पत्र और मीडिया संगठन इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहा है और इंटरनेट पर ये उपलब्ध हैं। लेकिन इंटरनेट पर इनकी मौजूदगी ने संकट को दूर करने की बजाय इसमें एक नया आयाम जोड़ दिया है। दरअसल विकसित देशों में जहां लगभग तीन-चौथाई लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और वह समाचार पत्रों को इंटरनेट पर ही पढ़ लेते है। इस वजह से समाचार पत्र पढे़ तो जा रहे हैं लेकिन वह सर्कुलेशन के दायरे से बाहर हो रहे और इसका समाचार पत्रों की बिक्री पर एक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

विकसित देशों में मीडिया बाजार एक ठहराव की स्थिति में आ गया है और एक मीडिया की कीमत पर दूसरे मीडिया के चयन की प्रक्रिया शुरु हुई है। इस कारण प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और इंटरनेट के बीच एक तरह होड़ शुरु हो गयी है। भारत जैसे विकसाशील देशों में मीडिया बाजार में अभी ठहराव की स्थिति पैदा नहीं हुई है और हर मीडिया प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और इंटरनेट का विस्तार हो रहा है। समाज के नए-नए तबके मीडिया बाजार में प्रवेश कर रहे हैं और अपनी क्रय शक्ति के आधार पर मीडिया उत्पादों के उपभोक्ता बन रहे हैं। भारत में यह माना जा रहा है कि लगभग 30 करोड़ लोग मध्यवर्गीय हो चुके हैं जिनके पास अतिरिक्त क्रय शक्ति है और इस कारण वे नए-नए उपभोक्ता उत्पाद के खरीददार होने की क्षमता रखते हैं। एक अनुमान के मुताबिक भारत में हर वर्ष 3 करोड़ लोग मध्यमवर्ग की श्रेणी में शामिल हो रहे हैं और इन लोगों की क्रय शक्ति इतनी बढ़ रही है कि वे विभिन्न तरह के मीडिया उत्पादों के उपभोक्ता बन रहे हैं।
इस पृष्ठभूमि में लोगों के मीडिया उत्पादों के उपयोग में भी परिवर्तन आ रहे हैं। अगर आज प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और इंटरनेट के उपभोक्ताओं का तुलनात्मक उपभोग पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि लोगों की मीडिया उत्पादों को खरीदने की प्राथमिकताओं में लगातार परिवर्तन आ रहे हैं। इस संदर्भ में हम बात का उल्लेख करना सामयिक होगा कि रेडियो माध्यम की जब लगभग अनदेखी की जा रही थी तो अचानक ही इस माध्यम ने जबर्दस्त वापसी की और भारत में पिछले दो वर्षों में रेडियो माध्यम की वृद्धि दर अन्य माध्यमों से कहीं अधिक रही।

नया वैश्विक मीडिया

समकालीन मीडिया परिदृश्य में केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण की प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं। एक ओर तो नई प्रोद्योगिकी और इंटरनेट ने किसी भी व्यक्ति विशेष को अपनी बात पूरे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तक पहुंचाने का मंच प्रदान किया है तो दूसरी ओर मुख्यधारा मीडिया में केन्द्रीकरण की प्रक्रिया भी तेज हुई है। पूरे विश्व और लगभग हर देश के भीतर मीडिया शक्ति का केन्द्रीकरण हो रहा है। एक ओर तो मीडिया का आकार विशालकाय होता जा रहा है और दूसरी ओर इस पर स्वामित्व रखने वाले संगठनों कॉर्पोरेशनों की संख्या कम होती जा रही है। पिछले कुछ दशकों से यह प्रक्रिया चल रही है और अनेक बड़ी मीडिया कंपनियों ने छोटी मीडिया कंपनियों का अधिग्रहण कर लिया है। इसके अलावा कई मौकों पर बड़ी-बड़ी कंपनियों के बीच विलय से भी मीडिया सत्ता के केन्द्रीकरण को ताकत मिली है।

आज वैश्विक संचार और सूचना तंत्र पर चन्द विशालकाय बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशनों का प्रभुत्व है जिनमें से अधिकांश अमेरिका में स्थित हैं। बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशन स्वयं अपने आप में व्यापारिक संगठन तो हैं ही लेकिन इसके साथ ही ये सूचना-समाचार और मीडिया उत्पाद के लिए एक वैश्विक बाजार तैयार करने और एक खास तरह के व्यापारिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए ही काम करते हैं। इन कॉर्पोरेशनों के इस व्यापारिक अभियान में पत्रकारिता और सांस्कृतिक मूल्यों की कोई अहमियत नहीं होती। इस रूझान को आज राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्ट रूप से भी देखा जा सकता है। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि वैश्विक मीडिया वैश्विक व्यापार के अधीन ही काम करता है और दोनों के उद्देश्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं।
पूरी वैश्विक मीडिया व्यवस्था पर इस वक्त मुश्किल से नौ-दस मीडिया कॉर्पोरेशनों का प्रभुत्व है और इनमें से अनेक कॉर्पोरेशनों का एक-तिहाई से भी अधिक कारोबार अपने मूल देश से बाहर दूसरे देशों में होता है। उदाहरण के लिए रूपर्ट मडॉक की न्यूज कॉर्पोरेशन का अमेरिका ,कनाडा, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, एशिया और लैटिन अमेरिका में मीडिया के एक हिस्से पर स्वामित्व है। जर्मनी के बर्टैल्समन्न कॉर्पोरेशन का विश्व के 53 देशों की 600 कंपनियों में हिस्सेदारी है। विश्व की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी एओएल टाइम वार्नर भी अमेरिका की है और विश्व की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी वियाकॉम कंपनी भी अमेरिका की है जिनका विश्व के मीडिया बाजार के एक बड़े हिस्से पर नियंत्रण है। सोनी कॉर्पोरेशन शुरु में इलेक्ट्रोनिक्स के उत्पादों में नाम कमा चुका था लेकिन आज एक मीडिया कंपनी के रूप में दुनिया भर में इसकी एक हजार सहयोगी कंपनियां काम कर रही हैं। इनके अलावा डिज्नी, वियाकॉम, एमटीवी, टेली-कम्युनिकेशन इंक, यूनीवर्सल( सीग्राम), माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और याहू का भी एक बड़े बाजार पर कब्जा है जो लगभग दुनिया के हर देश में फैला हुआ है। अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक जैसी हथियार बनाने वाले कॉर्पोरेशन ने भी मीडिया जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कर दी है और अमेरिका के एक प्रमुख समाचार चैनल एनबीसी पर इसका नियंत्रण है।

इन विशालकाय कॉर्पोरेशनों के बाद दूसरी परत के भी मीडिया संगठन हैं जिनका व्यापार दुनिया भर में बढ़ रहा है। इस वक्त विश्व में मीडिया और मनोरंजन उद्योग सबसे तेजी से उभरते सेक्टरों में से एक है और रोज नई-नई कंपनियां अपना नया और अलग मीडिया उत्पाद लेकर बाजार में कूद रही हैं। अधिकांश बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशन संचार के क्षेत्र के जुड़े कई सेक्टरों में काम कर रहे हैं जिनमें समाचार-पत्र और रेडियो और टेलीविजन चैनल के अलावा पुस्तक प्रकाशन, संगीत, मनोरंजन पार्क और अन्य तरह के मीडिया और मनोरंजन उत्पाद शामिल हैं। प्रोद्योगिक क्रांति ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए अपार संभावनाओं को जन्म दिया है। आज अधिकांश बड़े मीडिया कॉर्पोरेशन दुनिया भर में अपनी गतिविधियां चला रहे हैं। अनेक कॉर्पोरेशनों ने या तो किसी देश में अपनी कोई सहयोगी कंपनी खोल ली है या किसी देशी कंपनी के साथ साझेदारी कर ली है। हमारे देश में ही अनेक बहुराष्ट्रीय मीडिया कॉर्पोरेशनों के भारतीय संस्करण बाजार में उपलब्ध हैं। ये वैश्विक संगठन अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए स्थानीयकरण की ओर उन्मुख हैं और स्थानीय जरूरतों और रुचियों के अनुसार अपने उत्पादों को ढाल रहे हैं। इस तरह भूमंडलीकरण स्थानीयता का रूप ग्रहण कर रहा है और बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशनों की ये स्थानीयता दरअसल उनके ही वैश्विक उपभोक्ता मूल्यों और व्यापार संस्कृति को प्रोत्साहित करते हैं।

इस संदर्भ में सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की अवधारणा भी नया स्वरूप ग्रहण कर रही है और आज यह अवधारणा पहले से कहीं अधिक व्यापक गहरी और विशालकाय हो चुकी है। वैश्विक सूचना और संचार तंत्र पर आज पश्चिमी देशों का नियंत्रण और प्रभुत्व उससे कहीं अधिक मजबूत हो चुका है जिसे लेकर कुछ दशक पहले विकासशील देशों में विरोध के प्रबल स्वर उठ रहे थे। लेकिन आज अगर सांस्कृतिक उपनिवेशवाद पर पहले जैसी बहस नहीं चल रही है तो इसका मुख्य कारण यही है कि शीत युद्ध के बाद उपरांत उभरी विश्व व्यवस्था में विकासशील देशों की सामुहिक सौदेबाजी की क्षमता लगभग क्षीण हो गयी है। दूसरा शीत युद्ध के बाद दो विचारधाराओं के बीच संघर्ष का अंत हो गया और पश्चिमी विचारधारा ही प्रभुत्वकारी बन गयी और इतिहास के इस दौर में इसका कोई विकल्प नहीं उभर पाया। इन कारणों की वजह से पश्चिमी शैली की उदार लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था, आर्थिक स्तर पर मुक्त अर्थतंत्र और इनके विस्तार के लिए भूमंडलीकरण और विश्व बाजार के विस्तार - यही आज की विश्व व्यवस्था के मुख्य स्तंभ हैं। राजनीति और आर्थिकी के इस स्वरूप के अनुरूप ही सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य ढल रहे हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि मौजूदा विश्व व्यवस्था में पश्चिमी जीवन शैली और सांस्कृतिक मूल्यों का ही विस्तार हो रहा है और वैश्विक मीडिया इसमें अग्रणी भूमिका अदा कर रहा है। दरअसल भूमंडलीकरण की मौजूदा प्रक्रिया एक " टोटल पैकेज" है जिसमें राजनीति, आर्थिकी और संस्कृति तीनों ही शामिल हैं। मीडिया नई जीवनशैली और नए मूल्यों का इस तरह सृजन करता है इससे नए उत्पादों की मांग पैदा की जा सके और एक बाजार का सृजन किया जा सके। अनेक अवसरों पर मीडिया ऐसे उत्पादों की भी मांग पैदा करता है जो स्वाभाविक और वास्तविक रूप से किसी समाज की मांग नहीं होते हैं।

निष्कर्ष के तौर पर यह कह सकते हैं कि शीत युद्ध के उपरांत उभरी विश्व व्यवस्था पर राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पश्चिम का दबदबा है और वैश्विक मीडिया को भी यही नियंत्रित करता है। मीडिया पर नियंत्रण का मतलब किसी भी व्यक्ति, देश, संस्कृति, समाज आदि की छवि पर भी नियंत्रण करना है और इसी नियंत्रण से सही-गलत के पैमाने निर्धारित होते हैं। मीडिया के नियंत्रण से विरोधी को शैतान साबित किया जा सकता है और अपनी तमाम बुराइयों को दबाकर अपनी थोड़ी सी अच्छाइयों का ढिंढोरा पीटा जा सकता है। मीडिया ऐसे मूल्य और मानक तय करता है जिनके आधार पर यह तय होता है कि कौन सा व्यवहार सभ्य है और कौन सा असभ्य ? इसी निर्धारण से सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की सीमा शुरु होती है।

हिन्दी मीडिया

भारतीय मीडिया के मानचित्र पर भारी परिवर्तन आ रहे हैं। इनमें सबसे बड़ा और एक हद तक ऐतिहासिक परिवर्तन भारतीय भाषाओं और खास तौर से हिन्दी भाषा के मीडिया का भारी विस्तार है। देश में एक तरह की मीडिया क्रांति अगर आयी है तो इसका मुख्य कारण हिन्दी मीडिया की चहुंमुखी वृद्धि और विकास है। सत्तर के दशक में नई प्रोद्योगिकी के आने के समय से ही हिन्दी मीडिया का विस्तार शुरु हो गया था। नई प्रोद्योगिकी से समाचारों को कई केन्द्रों से प्रकाशित करना संभव हो गया। इससे मीडिया तक लोगों की पहुंच का विस्तार हुआ और इसी के साथ साक्षरता बढ़ने से नए-नए लोग समाचार पत्र पढ़ने लगे और क्रयशक्ति बढ़ने से भी अधिक लोग समाचार पत्र खरीदने लगे। साक्षरता के संदर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है हिन्दी भाषी क्षेत्रों में नव साक्षर केवल हिन्दी ही पढ़ लिख सकते थे जबकि अंग्रेजी पढ़-लिख सकने वाले पहले से ही समाचारपत्रों के पाठक थे। इसलिए पिछले कुछ दशकों में हिन्दीभाषी क्षेत्रों में समाचारपत्रों जितना भी विस्तार हुआ है उसका बहुत बड़ा हिस्सा हिन्दी मीडिया के खाते में ही जाता है। 70 के दशक के दौरान देश में राजनीतिक संघर्ष भी तेज हो चुका था। यह दौर विचारधारात्मक राजनीति संघर्ष का दौर था और इस राजनीतिक कारण से भी समाचारपत्रों में लोगों की रुचि बढ़ती चली गयी जिसकी वजह से समाचार पढने (खासकर हिन्दी समाचारपत्र) वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई।

आज देश में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले पहले और दूसरे नंबर के समाचार पत्र हिन्दी में हैं। देश के दस सबसे बड़े समाचार पत्रों में 9 हिन्दी भाषा के हैं। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि सत्तर के दशक में हिन्दी मीडिया में एक क्रांति की शुरुआत हुई। इस दौर में हिन्दी मीडिया का जबर्दस्त विस्तार हुआ और साथ ही इसके ढांचे और स्वामित्व में भी बड़े परिवर्तन आए। परंपरागत रूप से भारतीय मीडिया को राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, और जिला स्तर पर बांटा जाता था। इस समाचार पत्र की क्रांति के दौर में क्षेत्रीय मीडिया का सबसे अधिक विस्तार हुआ और राष्ट्रीय मीडिया के भी उस हिस्से का भी विस्तार हुआ जिसने क्षेत्रीय मीडिया में प्रवेश किया। समाचार पत्रों के अनेक स्थानों के प्रकाशन और समाचारों के स्थानीयकरण से जिला स्तर का वह छोटा प्रेस विलुप्त हो जिसका सर्कुलेशन हजार-दो हजार होता था और जो स्थानीय समस्याओं पर केन्द्रित था। अब बड़े अखबार ही स्थानीय अखबार की जरूरतों को पूरा करने लगे।

नब्बे के दशक के मीडिया का व्यापारीकरण और विस्तार भी भारतीय भाषाओं पर ही केन्द्रित रहा है और इस विस्तार का सबसे बड़ा हिस्सा हिन्दी मीडिया का ही था। पिछले कुछ समय में मीडिया और मनोरंजन उद्योग में जो बेमिसाल वृद्धि हुई है वह मुख्य रूप से भारतीय और हिन्दी भाषा में ही हुई है। टेलीविजन ने मात्र दस वर्षों में एक बड़े उद्योग का रूप धारण कर लिया है। टेलीविजन ने आज देश के राजनीतिक और सामाजिक मानचित्र पर अपने लिए अहम और महत्वपूर्ण भूमिका अर्जित कर ली है। आज देश के पूरे मीडिया और मनोरंजन उद्योग में टेलीविजन का हिस्सा सबसे अधिक है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा केबल टेलीविजन का बाजार है। दरअसल टेलीविजन माध्यम अपने स्वभाव से अंतरंग मीडिया है और साथ ही यह मीडिया लोकप्रिय संस्कृति से भी काफी गहरे से संबद्ध रहता है। इस कारण टेलीविजन मीडिया का हिन्दी भाषी राज्यों में जो विस्तार हो रहा है वह एर तरह से हिन्दी मीडिया का ही विस्तार है। सिनेमा और मनोरंजन के क्षेत्र में हिन्दी मीडिया केवल हिन्दीभाषी प्रदेशों तक ही सीमित नहीं है बल्कि पूरे देश में ही अच्छा-खासा बाजार पैदा कर चुका है। इस इकाई में भारतीय मीडिया के विकास के जिन रुझानों का विवरण दिया गया है उसी दिशा में हिन्दी मीडिया की भी वृद्धि और विकास हो रहा है। दरअसल भारत की मौजूदा मीडिया क्रांति के बाद हिन्दी मीडिया का ही सबसे तेजतर विस्तार हुआ है और आने वाले समय में यह रुझान और भी प्रबल होने की संभावना है।

साम्राज्यवाद को पोषित करता सूचना तंत्र

(लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
अमरीकी समाचार माध्यम दोहरे उद्देश्य से कार्य करते हैं। पहला उद्देश्य, अन्य देशों को वही सूचनाएं दी जाएं, जिस प्रकार की सूचनाओं से सृमद्ध देशों के हितों की पूर्ती होती हो। द्वितीय, विकासशील देशों अथवा पिछड़े देशों को अपमानित किया जाए, उनमें हीनभावना भरी जाए और उनमें जननायकों की मूर्ति को खंडित किया जाए, ताकि धीरे-धीरे ये देश अपना आत्मविश्वास खो बैठें। आत्मविश्वास से हीन देशों पर सांस्कृतिक व आर्थिक कब्जा जमा लेना अमरीका के लिए बहुत आसान हो सकता है। इसलिए अमरीका सूचना क्रांति का उपयोग विश्व में अपना सांस्कृतिक साम्राज्यवाद फैलाने के लिए कर रहा है…
विश्व के इतिहास में 17वीं शताब्दी को औद्योगिक क्रांति का युग माना जाता है। औद्योगिक क्रांति ने जिस साम्राज्यवाद को जन्म दिया, उससे सारा विश्व, विशेषकर एशिया व अफ्रीका त्रस्त रहे और शोषण का निकृष्ट रूप भी देखा। इसी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के संयोग ने सारे विश्व को कालांतर में शीत युद्ध में धकेला। यूरोप ने दो-दो युद्धों का सामना किया, जिसे इतिहास में प्रायः विश्व युद्ध भी कहा जाता है। इक्कीसवीं शताब्दी तक आते-आते स्थिति बदली और सूचना युग का सूत्रपात हुआ। एक प्रकार से ज्ञान और सूचना का विस्फोट ही हुआ। नए युग में सूचना प्रौद्योगिकी एक नई शक्ति के रूप में उभरी। शस्त्र बल से भी ज्यादा सूचना प्रौद्योगिकी का बल होगा, ऐसा प्रायः स्वीकार किया जाने लगा है। सूचना ज्ञान क्रांति का उपयोग आने वाले विश्व में किस प्रकार होगा, इसके संकेत अभी से उभरने प्रारंभ हो गए हैं। युद्ध के समाप्त हो जाने और सोवियत रूस के पतन के बाद वैसे भी दुनिया में अमरीका का हर क्षेत्र में एकाधिकार बढ़ता जा रहा है। यह एकाधिकार इस सीमा तक बढ़ता जा रहा है कि यूरोप के देश, जो भाषा संस्कृति के लिहाज से अपने आप को अमरीका के स्वाभाविक सह-यात्री मानते हैं, की यूरोपीय पहचान व आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर एक मंच पर एकत्रित होने का प्रयास कर रहे हैं।
सूचना एवं ज्ञान के क्षेत्र में हुए इस विस्फोट की व्याख्या एक अन्य दिशा में भी करनी होगी। छोटे, गरीब और विकासशील देशों के पास सूचना प्राप्त करने के साधन नहीं हैं। ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में हो रही प्रगति का व्यावहारिक स्तर पर लाभ उठाने की क्षमता नहीं है। इसलिए साधन संपन्न देश तृतीय देशों को उतनी सूचना ही देते हैं, जितनी संपन्न देशों के अपने हितों के लिए जरूरी होती है। समाचारों एवं घटनाओं की व्याख्या एवं विश्लेषण भी उसी प्रकार से किया जाता है, जिससे साधन संपन्न देशों का हित सधता है। अमरीका चाहता है कि सारी दुनिया प्रत्येक सूचना एवं घटना को उसी के चश्मे से देखे, उसी के नजरिए से सोचे। इसलिए उसने सूचना माध्यमों के स्रोतों पर ही एकाधिकार कर लिया है। भारत समेत तृतीय विश्व के देशों उन्हीं सूचना स्रोतों पर निर्भर हैं, जो अमरीका के कब्जे में हैं। कुछ उदाहरणों से बात और स्पष्ट हो जाएगी। जिन दिनों पंजाब में आतंकवाद का जोर था और सारा पंजाब आतंकवादियों से त्रस्त था, उन दिनों अमरीका के समाचार पत्रों में पंजाब में आतंकवादियों के अमानवीय कारनामे प्रमुखता से छपते थे। अमरीका सरकार पंजाब में आतंकवाद को एक प्रकार से प्रोत्साहित ही कर रही थी। उद्देश्य शायद यह रहा होगा कि दिल्ली सदा तनाव में रहेगी, तो प्रगति भी रुकेगी और अंततः अमरीका की शरण में भी आएगी। यहां तक तो ठीक था। लेकिन अमरीकी सरकार ने दुर्भाग्य से अमरीकी लोग आतंकवादियों के साथ सहानुभूति प्रकट नहीं कर रहे थे।
अमरीका के लोग आतंकवाद और आतंकवादियों को घृणा करते हैं। यह अजीब विरोधाभास था। तब न्यूयार्क टाइम्स में पंजाब के आतंकवादियों ने एक नया शब्द जड़ा, ‘मिलिटेंट’। इस एक शब्द ने सारी पंजाब समस्या को एक नया आयाम दे दिया। अब पंजाब समस्या अमरीका और पाकिसतान द्वारा समर्थित आतंकवाद की समस्या नहीं रही, बल्कि एक राजनीतिक-सामाजिक समस्या बन गई। अमरीका में करोड़ों डालर तो आ ही रहे थे, धीरे-धीरे भारत के अंग्रेजी समाचार पत्रों ने भी न्यूयार्क टाइम्स के पाठ को ईमानदारी से ग्रहण किया और भारतीय भाषाओं के समाचार पत्र तो समाचारों व विश्लेषण के लिए अंग्रेजी स्रोतों पर ही निर्भर हैं। इस प्रकार भारत समेत सारे विश्व के समाचारों में पंजाब के आतंकवादी देखते-देखते उग्रवादी बन गए। अमरीकी समाचार माध्यम दोहरे उद्देश्य से कार्य करते हैं। पहला उद्देश्य, उन्हें वहीं सूचनाएं और उसी प्रकार की सूचनाएं दी जाएं जिस प्रकार की सूचनाओं से सृमद्ध देशों के हितों की पूर्ती होती हो। द्वितीय, विकासशील देशों अथवा पिछड़े देशों को अपमानित किया जाए, उनमें हीनभावना भरी जाए और उनमें जननायकों की मूर्ती को खंडित किया जाए, ताकि धीरे-धीरे ये देश अपना आत्मविश्वास खो बैठें। आत्मविश्वास से हीन देशों पर सांस्कृतिक व आर्थिक कब्जा जमा लेना अमरीका के लिए बहुत आसान हो सकता है। इसलिए अमरीका सूचना क्रांति का उपयोग विश्व में अपना सांस्कृतिक साम्राज्यवाद फैलाने के लिए कर रहा है।
यह सारी पृष्ठभूमि इसलिए जरूरी है, ताकि उस देश की मानसिकता को समझ लिया जाए जिसने 21वीं सताब्दी की शुरूआत में ही इस सूचना क्रांति को इस प्रकार नियंत्रित कर लिया है, जिससे उसके अपने हितों की साधना हो सके। इन हितों में आर्थिक हित तो हैं ही, पांथिक हित भी हैं, जिनमें ईसाई मिशनरियों द्वारा तीसरे विश्व के देशों में किया जा रहा धर्म परिवर्तन भी एक प्रमुख हित है। इस संपूर्ण विश्व पृष्टभूमि में हमें यह जांचना-परखना होगा कि 21वीं सताब्दी में सूचना क्रांति और उससे जुड़ी हुई पत्रकारिता को भारत की प्रगति के सरोकारों से कैसे जोड़ा जा सकता है। इसके लिए अमरीकी सूचना तंत्र से निकली हुई पत्रकारिता की ऐसी अनेक बारूदी सुरंगों की तलाश करनी होगी, जो यत्र-तत्र-सर्वत्र जरा सा पांव पड़ने पर ही फट पड़ती है और भारत के आकाश में जहरीली धुआं फैला देती हैं। ऐसे वातावरण में जब पश्चिमी मीडिया की विश्वसनीयता संदिग्ध है और मानसिकता एशिया व अफ्रीका विरोधी है, तब भारत में पत्रकारों व पत्रकारिता की भूमिका क्या हो सकती है या ज्यादा स्पष्ट कहें तो पत्रकारिता के भारतीय सरोकार क्या होने चाहिएं?
भारत में पत्रकारिता से जुड़े तमाम क्रिया कलापों को दो हिस्सों में बांटना होगा। पहला हिस्सा उस पत्रकारिता का है, जिसका माध्यम भारतीय भाषाएं हैं। केवल संविधान की आठवीं अनुसूची में दी गई भारतीय भाषाएं ही नहीं, बल्कि उसमें इतर भी भारत के विभिन्न अंचलों में बोली जाने वाली भाषाएं। द्वितीय पत्रकारिता का वह क्षेत्र, जो विदेशी भाषाओं के माध्यम से व्यक्त होता है। इसमें अंग्रेजी, फ्रांस, जर्मन, इतालवी इत्यादि भाषाओं के दैनिक साप्ताहिक समाचार पत्रों को शामिल किया जा सकता है। भारत में इस क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा को छोड़कर अन्य यूरोपीय भाषाओं के समाचार पत्र इक्के-दुक्के छपते हैं। उदाहरण के लिए गोवा में पुर्तगाली व पुड्डुचेरी में फ्रांसीसी भाषा की पत्र-पत्रिकाएं छपती हैं।
साम्राज्यवादी शक्तियों की साजिश है कि भारत का शासन तंत्र उन लोगों के हाथ में रहे, जिनके मूल्य, जीवन शैली, सांस्कृतिक जड़ें पश्चिमी भूमि में हों। अंग्रेजी भाषा का मीडिया विशेषकर इसी अभिजात्य वर्ग के लिए माल परोसता है और यह वर्ग उसकी बड़े चाव से जुगाली करता है। अब जिस माल की जुगाली यह नौकरशाही कर रही है, उसका भी कार्य है कि इस मीडिया को प्रतिष्ठा भी प्रदान करे और उसे जीवन रस भी देता रहे। इसलिए नौकरशाही ने एक षड्यंत्र के तहत अंग्रेजी मीडिया को राष्ट्रीय घोषित कर दिया और भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता को क्षेत्रीय पत्रकारिता घोषित कर दिया। यदि किसी ने सचिवालयों की जमीन से नाक लगा कर इस षड्यंत्र को सूंघा होगा, तो उसने जरूर पाया होगा कि इसी नौकरशाही ने जगह-जगह अपनी फाइलों में नियम बना रखे हैं कि सरकारी विज्ञापन लाजिमी एक-दो राष्ट्रीय समाचार पत्रों में जाना चाहिए और साथ ही राष्ट्रीय समाचार पत्रों की सूची में केवल एक दो महानगरों में प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी दैनिक ही हैं। इस अंग्रेजी मीडिया की आम आदमी के लिए अनिवार्यता बढ़ती है और मीडिया की प्राण रक्षा हो जाती है।
ई-मेलः kuldeepagnihotri@gmail.com

सूचना तथा सांस्कृतिक साम्राज्यवाद

सूचना तथा सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का उदय

पिछले दो दशको में विकसित पूंजीवादी देशो विशेष रूप से अमेरिका में कम्प्यूटर ,दूर संचार,इंटरनेट तथा मोबाईल फोन के तेज विकास ने सारी दुनिया में क्रन्तिकारी परिवर्तन किये हैं।’’सूचना टेक्नालाजी’’ ने आज सारी दुनिया को एक ’’ग्लोबल विलेज ’’ में बदल दिया है। युद्धो में इस टेक्नालाजी का इस्तेमाल विशेष रूप से मानव रहित ड्रोन विमानो ने युद्ध के सम्पूर्ण परिदृश्य को बदल दिया। बहुत से समाज शास्त्री इस स्थिति को ’’सूचना साम्राज्यवाद’’ तथा’’सांस्कृतिक वर्चस्व’’ का नाम भी दे रहे हैं । पश्चिमी जगत आज इस नयी तकनीकी के माध्यम से सारे विश्व में एक तरह की संस्कृति भाषा तथा विचार थोप रहा है। चैबीस घण्टे चलने वाले टी.वी. सारी दुनिया में उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे रहे हैं । परन्तु सूचना तकनीकी का फायदा अगर सामा्राज्यवादी उठा रहे हैं तो सामाजिक परिवर्तन की ताकते भी इसका इस्तेमाल कर सकती हैं । पिछले वर्षो में लोकतंत्र की मांग को लेकर अरब जगत के आन्दोलनो में इंटरनेट तथा सूचना तकनीकी ने भारी योगदान दिया था।

आज के साम्राज्यवाद से संघर्ष की सम्भावना

आज की दुनिया का समग्र विशेषण करने से यह बात स्पष्ट तौर पर निकलती है कि लेनिन में 1916 में जिस साम्राज्यवाद की व्याख्या की थी उसका आर्थिक पक्ष आज भी सटीक तथा सही है। पूँजीवाद की इजारेदारी कई गुना ज्यादा बढ़ गयी है। ’’सामा्राज्यवाद आज एकल इकाई नही है।’’ वह गम्भीर अंतर्विरोधों से ग्रस्त है। निरन्तर तथा जल्दी -जल्दी आने वाली मंदी उसे और भी समस्याग्रस्त बना रही हैं । अर्थतंत्र से उपनिवेशवाद तथा सामंतवाद की पूर्ण विदाई हो रही है। पूँजी के साम्राज्य ने आज अपने आगोश में ले लिया है। पहले की सारी क्रांतियाँ चाहे वह रूस ,चीन ,एशिया तथा लैटिन अमेरिका में हुयी। वे पूँजीवाद के घोर आर्थिक ,राजनीतिक संबंधो के बीच सम्पन्न हुयी। परन्तु आज स्थितियां बदल गयी हैं तथा इसका सामना पूंजीवादी  देशो तथा जनतंत्रो से है जिसने इस मंजिल को और कठिन तथा जटिल को बना दिया है। बीती शताब्दी के सबक और रणनीतियां चाहे जितने भी महत्वपूर्ण हो अब सिर्फ उनसे काम नही चल सकता। अगली बड़ी क्रान्ति जहाँ भी सम्पन्न होगी वह पूँजीवादके खिलाफ प्रत्यक्ष पहली क्रान्ति होगी और किसी न किसी किस्म के बुर्जुआ जनतांत्रिक राज्य के खिलाफ होगी। 

लेनिन ने लिखा था साम्रज्यवाद का अर्थ युद्ध होता है। यह बात आज भी अपने आप में सत्य है। आज सारी दुनिया में बड़े पैमाने पर क्षेत्रीय युद्ध तथा गृह युद्ध हो रहे हैं जो किसी भी विश्व युद्ध की तबाही व बर्बादी से कम नही हैं। सीरियाइराक लीबियाअफगानिस्तानयमन,तंजानिया ,सूडान आदि युद्ध तथा गृह युद्ध के इलाको से यूरोप में बढ़ती शरणार्थियों की समस्या में इसका स्पष्ट प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। अमेरिका के नेतृत्व की आज की अति शोषक साम्राज्यवादी व्यवस्था ( जो आधे दर्जन दशो से ज्यादा मुल्कों में एक साथ सैन्य हस्ताक्षेप और ड्रोन युद्धो में उलझी हुयी है जो अपने विशाल नाभिकीय हथियारो को आधुनिक बनाने के लिए अगले दशक तक 200 अरब डालर खर्च करने की योजना बना रही है। ) द्वारा पैदा की गयी अस्थिरता आज कई तरह के युद्धो की सम्भावनाये पैदा कर रही है। यहा तक कि पर्यावरण में भी बदलाव मानव सभ्यता को अस्थिर होने तथा युद्धो की सम्भावनाओ को बढ़ाते है। यद्यपि केवल पर्यावरण परिवर्तन ही हमारी धरती तथा सभ्यता के विनाश का कारण बन सकता है। लेनिन के शब्दो में इन हालतो में वामपक्ष की यह जिम्मेदारी है वह ’’सिर्फ आर्थिक ही नही बल्कि राजनैतिक राष्ट्रीय इत्यादि अंतर्विरोधों ,संघर्षो और क्षोभ का भी’’ सामना करें जो लगातार हमारे समय की पहचान बनते जा रहे है। इसका मतलब जमीनी स्तर से एक ऐसे साहसपूर्ण वैश्विक आन्दोलन को बढ़ाना है जिसकी मुख्य चुनौती होगी उस साम्राज्यवाद को ध्वस्त करना जिसे हमारे समय के पूँजीवाद  की बुनियाद समझा जाता है।

1948 में मार्क्स-एंगेल्स द्वारा लिखित कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में भी मार्क्स ने अपने-अपने देश के पूंजीवादी निजाम के खिलाफ सर्वहारा वर्ग को संघर्ष छेड़ने की बात की थी जिसका उद्देश्य एक ज्यादा क्षैतिज ,समतावादी ,शान्तिपूर्ण और टिकाऊ सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है। जिसका नियंत्रण खुद सामूहिक उत्पादको के हाथ में होगा।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणा पत्र

अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के संबंध में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के सम्मेलन समाप्ति पर सैन फ्रैंसिस्को में 26 जून, 1945 को संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए गए और घोषणा पत्र 24 अक्टूबर, 1945 से लागू हुआ था। अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का अध्यादेश इस घोषणा पत्र का अनिवार्य अंश है।
इस घोषणापत्र के अनुच्छेद 23, 27 और 61, 17 दिसम्बर, 1963 को महासभा द्वारा संशोधित किए गए और ये संशोधन 31 अगस्त, 1965 से लागू हुए। महासभा ने 20 दिसम्बर, 1971 को अनुच्छेद 61 में एक और संशोधन किया जो 24 दिसम्बर, 1973 से लागू हुआ। 20 दिसम्बर, 1965 को महासभा द्वारा अनुच्छेद 109 के संबंध में अंगीकार किया गया संशोधन 12 जून, 1968 से लागू किया गया।
अनुच्छेद 23 से संबंधित संशोधन के द्वारा सुरक्षा परिषद् के सदस्यों की संख्या ग्यारह से बढ़ाकर पन्द्रह कर दी गई। संशोधित अनुच्छेद 27 में यह व्यवस्था की गई कि क्रिया विधि सम्बन्धी मामलों के लिए सुरक्षा परिषद् का निर्णय नौ सदस्यों के समर्थक मतदान (जबकि पहले सात की व्यवस्था थी) पर आश्रित होगा औरअन्य सभी मामलों में नौ सदस्य (पहले यह संख्या सात थी) के स्वीकारात्मक मतदानों पर आश्रित होगा और इसमें सुरक्षा परिषद् के पाँच स्थायी सदस्यों का स्वीकारात्मकमतदान भी सम्मिलित होगा।
अनुच्छेद 61 के संशोधन के द्वारा (जो 31 अगस्त, 1965 को लागू हुआ) आर्थिक और सामाजिक परिषद् के सदस्यों की संख्या अट्ठारह से बढ़कर सत्ताईस हो गई थी। इस अनुच्छेद के बाद के संशोधन से, जो 24 सितम्बर, 1973 को लागू किया गया, परिषद् के सदस्यों की संख्या सत्ताईस से बढ़ाकर चौवन कर दी गई।
अनुच्छेद 109 में किए संशोधन का सम्बन्ध उसी अनुच्छेद के पहले पैरा से है। इसके अनुसार घोषणा पत्र का पुनरीक्षण करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों का एक सामान्य सम्मेलन किया जा सकता है जिसकी तारीख और स्थान महासभा दो-तिहाई बहुमत से और सुरक्षा परिषद् अपने किन्ही नौ सदस्योंके (पहले यह संख्या सात थी) मतों से तय करेगी। जहाँ तक सुरक्षा परिषद् में किन्हीं सात सदस्यों के वोटों का संबंध है अनुच्छेद 109 के पैरा 3 को मूल रूप में रख लिया गया है। इसके महासभा के दसवें नियमित अधिवेशन में पुनर्विचार करने के लिए आयोजित किए जा सकने वाले सम्मेलन के विषय में विचार करने का उल्लेख है। 1955 में इस पैरा के अनुसार महासभा अपने दसवें नियमित अधिवेशन में, और सुरक्षा परिषद् भी, कार्यवाही कर चुकी है।
इसके तीस अनुच्छेदों पर कि वे आख़िर हैं क्याः

1. सब लोग गरिमा और अधिकार के मामले में स्वतंत्र और बराबर है.
2. प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के सभी प्रकार के अधिकार और स्वतंत्रा दी गई है. नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या अन्य विचार, राष्ट्रीयता या समाजिक उत्पत्ति, संपत्ति, जन्म आदि जैसी बातों पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है.
3. प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, आज़ादी और सुरक्षा का अधिकार है.
4. ग़ुलामी या दासता से आज़ादी का अधिकार.
5. यातना, प्रताड़ना या क्रूरता से आज़ादी का अधिकार.
6. क़ानून के सामने समानता का अधिकार.
7. क़ानून के सामने सभी को समान संरक्षण का अधिकार.
8. अपने बचाव में इंसाफ़ के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाने का अधिकार.
9. मनमाने ढंग से की गई गिरफ़्तारी, हिरासत में रखने या निर्वासन से आज़ादी का अधिकार.
10. किसी स्वतंत्र आदालत के ज़रिए निष्पक्ष सार्वजनिक सुनवाई का अधिकार.
11. जबतक अदालत दोषी क़रार नहीं दे देती उस वक़्त तक निर्दोष होने का अधिकार.
12. घर, परिवार और पत्राचार में निजता का अधिकार.
13. अपने देश में भ्रमण और किसी दूसेर देश में आने-जाने का अधिकार.
14. किसी दूसरे देश में राजनितिक शरण मांगने का अधिकार.
15. राष्ट्रीयता का अधिकार.
16. शादी करने और परिवार बढ़ाने का अधिकार और शादी के बाद पुरुष और महिला का समानता का अधिकार.
17. संपत्ति का अधिकार.
18. विचार, विवेक और किसी भी धर्म को अपनाने की स्वतंत्रता का अधिकार.
19. विचारों की अभिव्यक्ति और जानकारी हासिल करने का अधिकार.
20. संगठन बनाने और सभा करने का अधिकार.
21. सरकार बनाने की गतिविधियों में हिस्सा लेने और सरकार चुनने का अधिकार.
22. सामाजिक सुरक्षा का अधिकार और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की प्राप्ति का अधिकार.
23. काम करने का अधिकार, समान काम पर समान भुगतान का अधिकार और ट्रेड यूनियन में शामिल होने और बनाने का अधिकार.
24. काम करने की मुनासिब अवधि और सवैतिनक छुट्टियों का अधिकार.
25. भोजन, आवास, कपड़े, चिकित्सीय देखभाल और सामाजिक सुरक्षा सहित अच्छे जीवन स्तर के साथ स्वयं और परिवार के जीने का अधिकार.
26. शिक्षा का अधिकार. प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य हो.
27. सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शामिल होने और बौद्धिक संपदा के संरक्षण का अधिकार.
28. हर व्यक्ति को एक ऐसी सामाजिक और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का अधिकार है जो यह सुनिश्चित करे कि इस घोषणापत्र का पालन हो पाए.
29. प्रत्येक व्यक्ति समुदाय के प्रति जवाबदेह है जोकि लोकतांत्रिक समाज के लिए ज़रूरी हैं.
30. इस घोषणापत्र में शामिल किसी भी बात की ऐसी व्याख्या न हो जिससे यह आभास मिले कि कोई राष्ट्र, व्यक्ति या गुट किसी ऐसी गतिविधि में शामिल हो सकता है जिससे किसी की स्वतंत्रता या अधिकारों का हनन हो.
इस घोषणापत्र पर भारत सहित कई अन्य देशों ने हस्ताक्षर किए हैं.

रविवार, 1 अप्रैल 2018

संपादन कला (प्रिंट माध्यम के संदर्भ में)

आलोक श्रीवास्तव
संपादक‚ अहा जिंदगी व दैनिक भास्कर मैगजीन डिवीजन

संपादन एक व्यापक शब्द है। अकसर हम संपादन का अर्थ समाचारों के संपादन से लेते हैं। पर संपादन अपने संपूर्ण अर्थों में पत्रकारिता के उस काम का सम्मिलित नाम है‚ जिसकी लंबी प्रक्रिया के बाद कोई समाचार‚ लेख‚ फीचर‚ साक्षात्कार आदि प्रकाशन और प्रसारण की स्थिति में पहुंचते हैं। संपादन कला को ठीक से समझने के लिए जरूरी है कि यह जान लिया जाए कि यह क्या नहीं है:
1. लिखित कॉपी को काट-छांट कर छोटा कर देना
2. लिखित कॉपी की भाषा बदल देना
3. लिखित कॉपी को संपूर्णतः रूपांतरित कर देना
4. लिखित कॉपी को हेडिंग व सबहेडिंग से सुसज्जित कर देना
5. लिखित कॉपी को अलंकृत कर देना
6. लिखित कॉपी को सरल बना देना या उसे कोई खास स्वरूप दे देना
7. लिखित कॉपी में तथ्यों को ठीक करना या तथ्यों का मूल्यांकन कर उन्हें घटा-बढ़ा देना
8. लिखित कॉपी को पाठकों के बौद्धिक या समझ के स्तर के अनुरूप बना देना
अब इस बिंदु पर यह बता देना जरूरी है कि किसी भी कॉपी के संपादन में यह सब किया जाता है। पर हर कॉपी में यह सब करने की गुंजाइश अलग होती है। उपरोक्त काम हर कॉपी में एक समान रूप से नहीं किया जा सकता‚ यदि ऐसा किया गया तो वह एक गलत संपादन का उदाहरण होगा। अच्छे संपादन के लिए चार बातों की परख बहुत जरूरी है:
1. दी गई कॉपी बिना किसी परिवर्तन के ज्यों की त्यों मुद्रण के लिए अग्रसारित हो। यह जरूरत तब पड़ती है, जब कोई कॉपी भाषा‚ विचार‚ तथ्य हर दृष्टि से मुकम्मल हो। परंतु होता यह है कि संपादन करने का अनुभव पा चुका व्यक्ति हर कॉपी को तब्दील करने और सुधारने के मोह से खुद को मुक्त नहीं कर पाता। यदि वह किसी कॉपी को बिना कोई निशान लगाए अग्रसारित करने का विवेक विकसित कर लेता है तो यह संपादन कला का एक बेहतर उदाहरण होगा। यहां यह बता देना जरूरी है कि ऐसी कॉपियां कम ही होती हैं। यह ठीक ऐसा ही है कि क्रिकेट में ऑफ स्टंप के बिल्कुल पास से निकलती अच्छी लेंथ और अच्छी लंबाई की बेहतरीन गेंद को छोड़ देने का कौशल अर्जित करना। बड़े से बड़े खिलाड़ी इसमें पूर्ण कुशल नहीं हो पाते। सुनील गावस्कर इस कला में अप्रतिम थे।
2. कॉपी में मामूली फेरबदल और सुधार कर उसे लगभग मुकम्मल बना देना।
3. कॉपी में बहुत अधिक परिर्वतन करना।
4. कॉपी को लगभग पूरी तरह से री-राइट करना।
इन चारों बातों को ठीक से समझ लेना जरूरी है। किसी भी अखबार या पत्रिका के पास बहुत सारे स्रोतों से लिखित कॉपी आती है। इनका अलग अलग स्तर होता है। उस स्तर और गुणवत्ता की ठीक पहचान कर पाना और उसके अनुरूप उस कॉपी के साथ ट्रीटमेंट करने का कौशल विकसित कर पाना ही बेहतर संपादन की ओर ले जाएगा। यह सब तो वे बातें हुईं जो संपादन को संभव बनाती हैं या उसे बेहतर बनाती हैं। पर यह करने के लिए जो तैयारी चाहिए वह महत्वपूर्ण है। इस तैयारी को भी समझने के लिए इन बिंदुओं में बांटा जा सकता है:
1. व्यापक अध्ययन व अभिरुचि: राजनीति‚ समाज‚ इतिहास‚ संस्कृति‚ सिनेमा‚ खेल‚ साहित्य आदि जीवन और समाज से जुड़ी ढेरों चीजों का अध्ययन करना और उनमें रुचि लेना ही बेहतर संपादन के लिए तैयार कर सकता है‚ यही वह कच्चा माल है‚ जिससे संपादन के कौशल को विकसित किया जाता है। इसे और सरल ढंग से समझ लें। कोई भी कॉपी किसी न किसी विषय से संबंधित होती है‚ वह कॉपी समाचार के रूप में हो या फीचर के रूप में आलेख के रूप में हो या साक्षात्मकार के रूप में। उस विषय की जानकारी ही यह बता पाएगी कि तथ्य कितने सही हैं‚ उनका विश्लेषण या प्रस्तुतीकरण कितना संगत है।
2. भाषा का समुचित ज्ञान: जिस भाषा में संपादन किया जाना है‚ उसके समुचित ज्ञान का मतलब है कि उसके विराम चिंहों‚ व्याकरण‚ वाक्यरचना‚ मुहावरों‚ शब्द-संपदा‚ अभिव्यक्ति शैली तथा भाषा व संप्रेषण के विविध रूपों व स्तरों का ठीक ज्ञान‚ अनुभव और अभ्यास ही वह दक्षता विकसित कर सकता है कि अच्छा संपादन किया जा सके
3. विधा की समझ: समाचार‚ फीचर‚ आलेख‚ इंटरव्यू ऐसी ही अनेक विधाएं या रूप हैं जिनमें पत्रकारिता संबंधी लेखन होता है‚ हर विधा की अपनी विशिष्टता है। कोई समाचार आलेख की तरह नहीं लिखा जा सकता‚ न ही कोई फीचर समाचार की शैली में लिखा जा सकता है। विधा की जरूरत के अनुसार कॉपी होनी चाहिए। यदि नहीं है तो कितने और किस तरह के परिवर्तन से वह वैसी हो सकती है‚ यह समझ होनी चाहिए।
4. प्रस्तुति का विवेक: इसमें हेडिंग‚ सबहेडिंग लगाना‚ पैराग्राफस में कॉपी को बांटना‚ कौन सा पैरा पहले आना चाहिए कौन सा बाद में‚ कौन से वाक्य पहले आने चाहिए कौन से बाद में‚ शब्दों‚ वाक्यों‚ पैरा का परस्पर संबद्ध होना। इंट्रो‚ हाइलाइटर‚ कैप्शन आदि से कॉपी को सज्जित करना‚ और आकर्षक बनाना यह आज बहुत महत्व रखता है। यह सारा काम भी विधा के अनुरूप होना चाहिए‚ यानी समाचार‚ फीचर‚ आलेख…. आदि की प्रस्तुति में भिन्नता होगी‚ फिर यह प्रस्तुति अखबार‚ पत्रिका आदि के अपने विशिष्ट स्वरूप और पाठक वर्ग के अनुसार होगी। संपादन के लिए सबसे जरूरी चीज है – अभिरुचि का विकास। यह अभिरुचि भाषा, कंटेंट‚ विचार‚ समाज‚ पत्रकारिता के विविध माध्यम और विधा के अनेक रूपों में में गतिशील होनी चाहिए। अखबारों‚ पत्रिकाओं आदि का अपना एक इतिहास है‚ इसी प्रकार पाठक वर्ग का भी अपना एक इतिहास है यह इतिहास विकास के अनेक दौरों से गुजरा है‚ जिसने आज के पत्रकारिता माध्यमों और पाठक वर्ग को इनका वर्तमान स्वरूप दिया है। इस विकास की समझ संपादन कौशल को परिमार्जित और अपडेट करती है। साफ है कि आज के किसी अखबार के समाचार की भाषा और प्रस्तुति देखें तो यह 30-40 पहले की भाषा और प्रस्तुति से बिल्कुल अलग होगी। इसी प्रकार यह भी पता चलता है कि आज समाचारों का दायरा बढ़ा है। ढेरों नए विषय और नए क्षेत्र पैदा हुए हैं। पाठकों की अभिरुचि और जागरूकता का स्तर भी बढ़ा है। उनका एक्सपोजर बढ़ा है। रेडियो‚ टीवी‚ इंटरनेट‚ साप्ताहिक‚ मासिक‚ दैनिक विविध तरह के माध्यम और उनकी पहुंच बढ़ी है। अब ऐसा नहीं हो सकता है कि सुबह के अखबार में ही जो समाचार छपा है‚ वह अगले दिन के बुलेटिन में रेडियो पर पढ़ा जाए‚ जबकि ऐसा बरसों पहले यदाकदा होता ही था। यानी समय‚ माध्यम‚ पाठक इनकी गहरी समझ ही सामग्री चयन को अपडेट रखने‚ उसका उचित संयोजन करने और उसे बेहतर ढंग से सुसंपादित रूप में प्रस्तुत करने में मदद कर सकती है। आज कॉपी के साथ‚ ग्रॉफिक्स‚ डाटा‚ विजुअल‚ चार्ट आदि का महत्व बहुत बढ़ा है। संपादन में इनका बेहतर इस्तेमाल अखबारों-पत्रिकाओं को ज्यादा आकर्षक और उपयोगी बनाता है।
संपादन के निम्नलिखित चरण माने जा सकते हैं –
1. सामग्री चयन व सामग्री विश्लेषण
2. सामग्री का भाषा संपादन
3. प्रस्तुतिकरण
ये तीनों काम परस्पर संबद्ध हैं‚ और इनमें बेहतर तालमेल से ही बेहतर संपादन कार्य किया जा सकता है। एक अन्य बात जो गुजारे जमाने की पत्रकारिता में महत्वपूर्ण मानी जाती थी‚ परंतु अब इसका चलन कम हो गया है‚ वह है वैचारिक रुझान। संपादन का यह जरूरी हिस्सा हुआ करता था। अब पत्रकारिता के बदले दौर में यह माना जाता है कि बेहतर अखबार या पत्रिका के लिए वैचारिक रुझान बाधक है। हालांकि इसका असर यह पड़ा है कि वैचारिक रुझान से रहित संपादन में भी अदृश्य और बारी वैचारिक रुझान होते ही हैं। ये वैचारिक रुझान प्रभुत्वशाली विचारधाराओं से बने वर्तमान के सामूहिक अवचेतन के रूप में होते हैं। कुल मिलाकर हुआ यह है कि सजग वैचारिकता अब नेपथ्य में है। इसका परिणाम वर्तमान पत्रकारिता के शिल्प और प्रस्तुतिकरण को निखारने और उसे विचाररहित बनाने की ओर बढ़ा है। कंटेंट के स्तर पर यह अच्छे संपादन में मदद नहीं करता। अच्छे संपादन के लिए यह कौशल भी बहुत जरूरी है कि अपने विचारों‚ उनके स्रोतों और उनके निर्माण की प्रक्रिया के बारे में सजगता हो।