उत्तर प्रदेश के कुछ विश्वविद्यालयों में समाजवादी युवजन सभा और एबीवीपी ने जिस तरीके से कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी का विरोध किया, उसे सही नहीं ठहराया जा सकता। जनतंत्र में असहमति व्यक्त करने का अधिकार सब को है, लेकिन इस नाम पर अराजकता फैलाना गलत है।
वैसे यूपी में राहुल गांधी के प्रति छात्र संगठनों का यह रवैया पहली बार देखा जा रहा है। किसी भी छात्र संगठन ने उनका इस तरह से उग्र विरोध करने का साहस पहले नहीं दिखाया था। तो क्या यह माना जाए कि राहुल गांधी की लोकप्रियता का ग्राफ कुछ गिरा है? संभव है युवाओं के मन में राहुल के प्रति पैदा हो रहे असंतोष ने ही इन छात्र संगठनों का हौसला बढ़ाया हो।
दरअसल राहुल अब उस दौर से आगे निकल आए हैं, जब वह एक शो-पीस की तरह देखे जाते थे। युवा उन्हें सुनने से ज्यादा देखने में रुचि दिखाते थे। राहुल उनके लिए राजनेता से ज्यादा एक मॉडल थे, इसलिए उनकी सियासी बातों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे राहुल ने राजनीति की जमीन पर अपने पैर मजबूती से जमा लिए हैं। उनकी पार्टी ने भी उन पर पहले से ज्यादा भरोसा करना शुरू कर दिया है और अब वह कांग्रेस का चेहरा बनते जा रहे हैं। ऐसे में उनसे लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ी हैं। अब यह उम्मीद की जाती है कि वह जो कहें उस पर अमल भी करें।
अब जनता उन्हें किसी तरह की रियायत नहीं देना चाहती। वह उनके एक-एक शब्द का हिसाब रखने लगी है। राहुल काफी समय से आम छात्रों से कहते आ रहे हैं कि वे राजनीति में उतरें, लेकिन राहुल अपनी पार्टी में सामान्य पृष्ठभूमि वाले युवाओं को स्थान दिलाने की कोई खास पहल करते नहीं नजर आ रहे। युवा देख रहे हैं कि कांग्रेस में ऊपर से नीचे तक वैसे लोगों की भरमार है जो किसी न किसी वरिष्ठ नेता, अधिकारी या उद्योगपति के परिवार से ताल्लुक रखते हैं।
आज केंद्रीय मंत्रिमंडल में कहने को तो कई युवा हैं, पर उनमें से ज्यादातर पूर्व मंत्रियों या राजनेताओं की संतानें हैं। फिर शिक्षा और रोजी-रोजगार को लेकर यूपीए सरकार की ऐसी कोई विशेष नीति भी नहीं दिखाई देती, जो व्यापक छात्र वर्ग में नई उम्मीद जगा सके। अगर राहुल गांधी युवाओं को अपनी पार्टी से जोड़ना चाहते हैं तो उन्हें यंग जेनरेशन को कुछ ठोस देना होगा। युवाओं को व्यक्तित्व के करिश्मे और स्टंट से बहुत दिनों तक भरमाया नहीं जा सकता।
बाजारवाद की अंधी दौड़ ने समाज-जीवन के हर क्षेत्र को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, खासकर, पत्रकारिता सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पत्रकारिता ने जन-जागरण में अहम भूमिका निभाई थी लेकिन आज यह जनसरोकारों की बजाय पूंजी व सत्ता का उपक्रम बनकर रह गई है। मीडिया दिन-प्रतिदिन जनता से दूर हो रही है। यह चिंता का विषय है। आज पूंजीवादी मीडिया के बरक्स वैकल्पिक मीडिया की जरूरत रेखांकित हो रही है, जो दबावों और प्रभावों से मुक्त हो। विचार पंचायत इसी दिशा में एक सक्रिय पहल है।
बुधवार, 12 जनवरी 2011
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