आप गौर कीजिए, अयोध्या मामले पर फैसला आने के पहले किस तरह कुछ शहरों में चौराहों पर आपसी सदभावना के लिए
फूल बांटे जा रहे थे। आप पिछले दिनों आने वाले एसएमएसों की भाषा में शांति की चाहत देखिए। हालांकि अंतहीन इंतजार के बाद अयोध्या पर कोई फैसला आ जाने की उम्मीद एक बार फिर अधर में अटक गई है। फैसले की घोषणा के साथ कानून-व्यवस्था की कुछ चिंताएं जुड़ी थीं, पर कहीं न कहीं इसमें यह राहत भी शामिल थी कि अंतत: यह किस्सा खत्म होने की ओर तो बढ़ा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद मामला और लंबा खिंचने के आसार बनने लगे हैं।
एक बात बिल्कुल साफ है कि अब से बीसेक साल पहले, यानी 1989 से 1992 के बीच मंदिर-मस्जिद विवाद को लेकर जैसा तनाव पूरे देश में दिखाई पड़ रहा था, उसकी छाया भी आज कहीं नजर नहीं आ रही है। इस बीच जन्मी और पली-बढ़ी भारत की नई पीढ़ी का जीवन, उसके सपने और उसकी परेशानियां कुछ और हैं। उस सामाजिक ठहराव को वह बहुत पीछे छोड़ आई है, जिससे ठलुआ किस्म के ढेरों निरर्थक विवाद इस देश में पैदा होते आए हैं। उसके मन में आस्था के लिए कुछ स्पेस जरूर है, लेकिन आस्था के नाम पर मार-काट उसके अजेंडा में दूर-दूर तक नहीं है। रहा सवाल पुरानी पीढ़ी का तो इन दो दशकों में उसने भी अपने सारे हाथ आजमा कर देख लिए हैं। उसे पता है कि अयोध्या विवाद एक राजनीतिक मामला है और जिन लोगों की रोजी-रोटी इससे चलती है वे इसे भुनाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
इस सामाजिक मोहभंग को देखते हुए ही मंदिर या मस्जिद के लिए अपना जीवन होम कर देने की डींगें हांकने वाले लोग भी इस मुद्दे पर पहले की तरह आक्रामक होने से बच रहे हैं। इस माहौल में अच्छा यही होगा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट अपना फैसला सुनाकर झंझट खत्म करे। इसके बजाय फैसला टालने या मुकदमा और लंबा खिंचने से समाज में उन लोगों का पक्ष मजबूत होगा, जो आस्था को आधार बनाकर अदालत का फैसला न मानने पर अड़े हुए हैं। खतरा यह भी है कि 60 साल पुराने मुकदमे के फैसले की घोषणा खुद सुप्रीम कोर्ट द्वारा टाल दिए जाने से कहीं हमारी न्यायपालिका के औचित्य पर ही सवाल न खड़ा होने लगे।
from-nbt
बाजारवाद की अंधी दौड़ ने समाज-जीवन के हर क्षेत्र को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, खासकर, पत्रकारिता सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पत्रकारिता ने जन-जागरण में अहम भूमिका निभाई थी लेकिन आज यह जनसरोकारों की बजाय पूंजी व सत्ता का उपक्रम बनकर रह गई है। मीडिया दिन-प्रतिदिन जनता से दूर हो रही है। यह चिंता का विषय है। आज पूंजीवादी मीडिया के बरक्स वैकल्पिक मीडिया की जरूरत रेखांकित हो रही है, जो दबावों और प्रभावों से मुक्त हो। विचार पंचायत इसी दिशा में एक सक्रिय पहल है।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
-
संचार क्या है सार्थक चिन्हों द्वारा सूचनाओं को आदान -प्रदान करने की प्रक्रिया संचार है। किसी सूचना या जानकारी को दूसरों तक पहुंचाना संचा...
-
आँकड़ों में, गुणवत्ता आश्वासन, और सर्वेक्षण पद्धति में, नमूना एक संपूर्ण आबादी का एक अनुमान के लिए एक सांख्यिकीय आबादी के भीतर से एक सबसेट ...
-
अवधारणा उल्टा पिरामिड सिद्धांत समाचार लेखन का बुनियादी सिद्धांत है। यह समाचार लेखन का सबसे सरल, उपयोगी और व्यावहारिक सिद्धांत है। ...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें