यह वाकई चिंता की बात है कि देश के महानगरों और बड़े शहरों की 77 फीसदी लड़कियों को छेड़खानी का डर सताता
रहता है। गैर सरकारी संगठन 'प्लान इंडिया' के एक सर्वे में यह खुलासा हुआ है। इस सर्वे के मुताबिक 69 प्रतिशत लड़कियां शहरों को अपने लिए सुरक्षित नहीं मानतीं। यह राय हर वर्ग की लड़कियों की है, चाहे वह झुग्गी- झोपड़ी में रहती हों, स्कूल-कॉलेजों में पढ़ती हों या नौकरीपेशा हों।
निश्चय ही यह उन शहरों की कानून-व्यवस्था और सामाजिक वातावरण पर एक कड़ी टिप्पणी है। एक आधुनिक समाज की पहचान इस बात से भी होती है कि वहां महिलाएं अपने को कितना सुरक्षित और स्वतंत्र महसूस करती हैं। इस नजरिए से देखें तो हमारे शहर अब भी आधुनिक मूल्यों से काफी दूर नजर आते हैं। वहां छेड़खानी और यौन अपराधों का होना इस बात का संकेत है कि वहां के समाज में स्त्री-पुरुष संबंध में सहजता अभी नहीं आई है। सामंती समाज में स्त्री-पुरुष का रिश्ता गैर बराबरी का रहा है। इस कारण उनमें आपसी संवाद की गुंजाइश भी बेहद कम रही है। लेकिन ज्यों-ज्यों समाज बदला, स्त्री को हर स्तर पर आगे बढ़ने के मौके मिले। धीरे-धीरे उनके प्रति नजरिए में तब्दीली आई। और इस तरह स्त्री-पुरुष संबंध का तानाबाना भी बहुत कुछ बदला। दोनों का अपरिचय काफी हद तक खत्म हुआ। गांवों-कस्बों की तुलना में शहरों-महानगरों में स्त्री को ज्यादा आजादी मिली, शिक्षा और रोजी-रोजगार के अवसर ज्यादा मिले। लेकिन पुरुष वर्ग की मानसिकता में सामंती मूल्यों के अवशेष अब भी बचे हुए हैं। यौन अपराध कहीं न कहीं उसी की अभिव्यक्ति हैं।
असल में सामाजिक विकास की प्रक्रिया भी हर जगह एक सी नहीं रही है। उनमें काफी असंतुलन है। यही वजह है दिल्ली जैसे महानगर में एक तरफ तो लिव इन रिलेशन को भी स्वीकार किया जा रहा है, दूसरी ओर ऑनर किलिंग की घटनाएं भी घट रही हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि पुलिस-प्रशासन में भी पुरुषवाद हावी है। महिलाओं के साथ होने वाले किसी भी अपराध को आमतौर पर पुलिस गंभीरता से नहीं लेती या बेहद ढीले-ढाले ढंग से कार्रवाई करती है। इस वजह से यौन अपराधों में सजा दिए जाने की दर बेहद कम है। पुलिस का यह रवैया शरारती तत्वों के हौसले बढ़ाता है। महिलाएं भी यथासंभव सब कुछ चुपचाप बर्दाश्त करके चलती हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है कि आवाज उठाने से वे मुसीबत में पड़ जाएंगी। सर्वे में 40 फीसदी लड़कियों ने कहा है कि वे अपने साथ छेड़छाड़ को नजरअंदाज करती हैं। महिलाओं के सशक्तीकरण की आज खूब बातें की जा रही हैं। पर जब वे बेखौफ होकर सड़क पर चल भी नहीं सकतीं तो उनके एम्पॉवरमेंट का क्या मतलब है।
बाजारवाद की अंधी दौड़ ने समाज-जीवन के हर क्षेत्र को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, खासकर, पत्रकारिता सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पत्रकारिता ने जन-जागरण में अहम भूमिका निभाई थी लेकिन आज यह जनसरोकारों की बजाय पूंजी व सत्ता का उपक्रम बनकर रह गई है। मीडिया दिन-प्रतिदिन जनता से दूर हो रही है। यह चिंता का विषय है। आज पूंजीवादी मीडिया के बरक्स वैकल्पिक मीडिया की जरूरत रेखांकित हो रही है, जो दबावों और प्रभावों से मुक्त हो। विचार पंचायत इसी दिशा में एक सक्रिय पहल है।
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