क्या भारत सरकार को उन संगठनों से बातचीत करनी चाहिए जो लोगों को बंधक बनाकर अपनी माँगें मनवाना चाहते हैं?
बीस साल पहले तत्कालीन गृहमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद को विदेशी /कश्मीरी चरमपंथियों के चंगुल से छुड़वाने का मामला हो या फिर इंडियन एअरलाइंस के विमान को छुड़वाने के लिए कश्मीरी चरमपंथियों की रिहाई का मामला हो भारत सरकार के पास बंधक-संकट से निपटने के लिए कोई ठोस नीति नहीं है.
हालाँकि यासिर अराफ़ात से लेकर काँग्रेस समर्थक पाँडे बंधु तक विमान अपहरण करके अपनी माँगे मनवाने की कोशिश कर चुके हैं. और अब बिहार में माओवादियों ने चार पुलिस वालों को बंधक बनाया हुआ था जिसमे से एक की ह्त्या भी कर दी गयी है
तो क्या बंधकों को बचाने के लिए सरकार को बंधक बनाने वालों से बातचीत करनी चाहिए या नहीं?
बाजारवाद की अंधी दौड़ ने समाज-जीवन के हर क्षेत्र को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, खासकर, पत्रकारिता सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पत्रकारिता ने जन-जागरण में अहम भूमिका निभाई थी लेकिन आज यह जनसरोकारों की बजाय पूंजी व सत्ता का उपक्रम बनकर रह गई है। मीडिया दिन-प्रतिदिन जनता से दूर हो रही है। यह चिंता का विषय है। आज पूंजीवादी मीडिया के बरक्स वैकल्पिक मीडिया की जरूरत रेखांकित हो रही है, जो दबावों और प्रभावों से मुक्त हो। विचार पंचायत इसी दिशा में एक सक्रिय पहल है।
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